लघुकथा – फर्क
“रमा बहन,आजकल आप दिखाई नहीं देतीं, कहां व्यस्त रहती हैं ?”
“अरे उमा बहन ,बात यह है कि मेरी बेटी एक माह के लिए मायके आई हुई है, तो उसी के साथ कंपनी बनी रहती है ।”
“पूरे एक माह के लिए ?”
“हां, बिलकुल”
“अरे बेटियां ससुराल में पिसती रहती हैं, तो उन्हें आराम की ज़रूरत भी तो होती है ।”
“और वह केवल मायके में ही संभव है ।”
“और, आपकी बहू निशा ?”
“अरे वह तो एक नंबर की कामचोर है। मतलब, जब देखो तब थकावट का रोना रोकर बिस्तर की ओर दौड़ती है।”
“अच्छा”
“पर मैं उसको ज़रा भी मनमानी नहीं करने देती। बहन बहुओं को जिसने सिर पर बैठाया, उसे पछताना पड़ता है।”
— प्रो. शरद नारायण खरे