ग़ज़ल
रब से ये बेह तरीन उल्फत है।
ख़िदमते ख़ल्क़ इक इबादत है।
हर तरफ दिख रही बगावत है।
किस तरह की भला सियासत है।
इश्क़ इंसान की जरूरत है।
ये फ़साना नहीं हक़ीक़त है।
खानदानी मेरी रिवायत है।
सबको करना सलाम आदत है।
जान की फिर नहीं करो परवाह,
दाँव पर गर कहीं भी इज्ज़त है।
जीत करके यहाँ नहीं इतरा,
एक सबसे बड़ी अदालत है।
बात उसकी मैं मानता हरदम,
दिल पे जिसकी मेरे हुक़ूमत है।
करलो थोड़ासा झुक के समझौता,
अम्न की वो अगर ज़मानत है।
मिल के उनसे हुआ बहुत बेचैन,
आज वश में नहीं तबीयत है।
बाग सुनसान तुम अकेले हो,
फिर भी बहकी कहाँ शराफत है।
करके मेहनत हलाल की जो मिले,
सूखी रोटी भी तब नियामत है।
उँगलियाँ मत उठाइये उनपर,
जिनसे मुझको दिली मुहब्बत है।
खै़र मकदम है आपका हरदम,
हर खुशी आपकी बदौलत है।
रोज़ ही आज़मा रहा मुझको,
उसको मुझसे बड़ी मुहब्बत है।
हर घड़ी है हमीद खतरे में,
क़द में ऊँची अगर इमारत है।
शे’र उम्दा कहें हमीद मियाँ,
मीर गालिब से उनकी निस्बत है।
— हमीद कानपुरी