“फूल हैं पलाश में”
कितने हसीन फूल, खिले हैं पलाश में
फिर भी भटक रहे हैं, चमन की तलाश में
—
पश्चिम की गर्म आँधियाँ, पूरब में आ गयी
ग़ाफ़िल हुए हैं लोग, क्षणिक सुख-विलास में
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जब मिल गया सुराज तो, किरदार मर गया
शैतान सन्त सा सजा, उजले लिबास में
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क़श्ती को डूबने से, बचायेगा कौन अब
शामिल हैं नयी पीढ़ियाँ, अब तो विनाश में
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किसको सही कहें यहाँ, और कौन ग़लत है
असली ज़हर भरा हुआ, नकली मिठास में
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काग़ज़ के फूल में, कभी आती नहीं सुगन्ध
मसले गये सुमन सभी, भीनी सुवास में
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बदला हुआ है ‘रूप’, रंग और ढंग भी
अन्धे चलें हैं देखने, दुनिया उजास में
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(डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)