स्वीकृति
”तुम तो कहते थे, कि दुनिया भावनाओं की है. ये देखो दुनिया तो पत्थरों की है.” श्रद्धा ने विश्वास को एक चित्र दिखाते हुए कहा.
”तुम्हें इसमें सिर्फ़ पत्थर-ही-पत्थर दिखाई देते हैं?” प्रश्न पर प्रतिप्रश्न था.
”सिर्फ़ चित्र में ही नहीं, आजकल तो लोगों की अक्ल पर भी पत्थर पड़ते दिखाई देते हैं.”
”श्रद्धा होकर भी तुम यह कह रही हो, तो विश्वास का क्या होगा?”
”विश्वास किस चिड़िया का नाम है, लोग शायद यह भी भूल चुके हैं. न तो विश्वास की नींव पर टिके घर में किसी-को-किसी पर विश्वास है, न सरकार का जनता पर और न जनता का सरकार पर. सब एक दूसरे को परले दरजे के बेईमान समझते हैं.” श्रद्धा की विश्वसनीयता चुकती दिखाई दे रही थी.
”सुबह सैर पर तुमने देखा नहीं! कितने प्यार से एक मां अपनी अपाहिज बच्ची को क्रिसमस प्रेयर पर ले जा रही थी!” विश्वास की विश्वसनीयता बरकरार थी.
”वह तो मां थी न!”
”और सोनिया कितने प्यार से अपने डॉगी की नटखट शरारतों को बर्दाश्त कर रही थी, फिर भी हमसे गुड मॉर्निंग करना नहीं भूली.”
”राजनीति की रपटीली राह को ही देखो न!”
”खुद ही कह रही हो राजनीति की रपटीली राह” श्रद्धा की बात बीच में काटते हुए विश्वास ने कहा, ”राजनीति की रपटीली राह की अनिश्चितता को जानते हुए भी राजनीति में तो यह सब होता ही रहता है.”
”क्या यह सब ऐसे ही चलता रहेगा?” श्रद्धा ने भी बीच में बात काटते हुए कहा.
”चित्र को ध्यान से देखो श्रद्धा, ऊबड़-खाबड़ पत्थरों में एक नाव भी दिखाई दे रही है. विश्वास रखो इसी नाव में मनु सबके तारनहार बनेंगे. यथार्थ के ज्ञात हुए बिना केवल अनुमानों की परिकल्पना पर रिश्तों की संरचना नहीं करनी चाहिए, क्योंकि अनुमान केवल संदेह उत्पन्न करते हैं और संदेह केवल विनाश!”
श्रद्धा ने विनत भाव से भावनाओं के आवेग को स्वीकृति दी.
श्रद्धा और विश्वास एक दूसरे के सहयोगी हैं, लेकिन जब उनमें भी समंवय की भावना न दिखाई दे, तो ऐसी अनिश्चितता की स्थिति का बनना निश्चित है. अनुमान अनिश्चितता के जनक हैं.