पर्यावरण

गौरैया सहित अन्य पक्षियों के विलुप्तिकरण के निहितार्थ

( 20 मार्च गौरैया दिवस के उपलक्ष्य में )
इस धरती पर जीव जगत के उद्भव को अगर हम 24 घंटे मान लें तो इसकी तुलना में हम मानवोंं का इस पृथ्वी पर अवतरण का समय मात्र एक सेकंड ही हुआ है, परन्तु हम मानवों द्वारा इस पृथ्वी के पर्यावरण मतलब इसके द्वारा करोड़ों सालों में धीरेधीरे निर्मित और संचित इसकी मिट्टी, पानी, हवा, जंगल, भूगर्भीय पेट्रोलियम, गैस, धातु अयस्क आदि को अपनी हवस और लालच के वशीभूत होकर इस कदर जबर्दस्त तरीके से दोहन करने की बात हो और इसके जल, थल, वायु, भूगर्भ, नदियों, जलाशयों, पोखरों, तालाबों, समुद्रों आदि के भयंकरतम् प्रदूषण करने की बात हो, इस पृथ्वी के अनादिकाल से इस पर जन्म लेनेवाले लाखों-करोड़ों जीव प्रजातियों, मसलन डॉयनोसॉर युग के भयंकरतम् आकार के डॉयनोसॉर आदि भी इस पृथ्वी के पर्यावररण व प्रकृति को इतनी क्षति नहीं पहुँचाए, जितनी क्षति हम मानव प्रजाति जीव जगत के इस पृथ्वी पर अविर्भाव के 24 घंटों की तुलना में अपने अविर्भाव के मात्र एक सेकेण्ड में पहुँचा चुके हैं।
वैज्ञानिक शोधों के अनुसार सन् 2000 के बाद मात्र 20 वर्षों में पूरी दुनिया में 100 अरब टन कॉर्बन छोड़ी गई है, जिससे इस धरती की 2 अरब हेक्टेयर कृषिभूमि बर्बाद हो गई, इसके अतिरिक्त इससे उत्पन्न ‘ग्लोबल वार्मिंग ‘से इस धरती की बहुत बड़ी रकबे की जमीन बंजर हो गई, करोड़ों हेक्टेयर क्षेत्रफल की फसलें बर्बाद हो गईं, लाखों सालों से नदियों के जल के अनवरत श्रोत लाखों ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं, इस भयंकर प्रदूषण और ग्लोबल वार्मिंग से वनस्पति सहित, वन्य जीव-जन्तु, पक्षी, कीट-पतंगे, तितलियाँ, मधुमक्खियाँ आदि तेजी से विलुप्त हो रहीं हैं ।
पक्षी और पर्यावरण वैज्ञानिकों के अनुसार, दुनिया में अगर प्रदूषण की यही हालत रही तो दुनिया भर में पक्षियों की 9900 ज्ञात प्रजातियों की 12 प्रतिशत यानि 1183 प्रजातियों के कुछ सालों में ही इस दुनिया से सदा के लिए विलुप्त हो जाने का खतरा मंडरा रहा है, जिनमें भारतीय गिद्ध, उल्लू, विल्ड सैंडपाइपर, बगुला, कौआ, फाख्ता, तोते, भारत का राष्ट्रीय पक्षी मोर तथा हमारे घर-आँगन में फुदकने वाली हमारी नन्हीं पारिवारिक सदस्या गौरैया भी हैं। हमारे किसानों द्वारा अंधाधुंध अपनी फसलों पर रासायनिक कीटनाशकों के छिड़काव से मोर और गौरैया जैसे पक्षी मर रहे हैं, दुधारू पशुओं को दूध बढ़ाने हेतु दिए जाने वाले इंजेक्शन की वजह से उनके विषाक्त माँस को खाने से भारत के पक्षी जगत के सफाई कर्मी, 95 प्रतिशत गिद्ध विलुप्त हो चुके हैं। कुछ दिनों पूर्व कुछ समाचार पत्रों में इंद्रप्रस्थ विश्वविद्यालय, नई दिल्ली के कोई असिस्टेंट प्रोफेसर (पर्यावररण )की एक रिपोर्ट प्रकाशित हुई थी कि ‘गौरैयों की संख्या कम नहीं हुई है, बल्कि वे शहरों को छोड़कर गाँवों में चली गईं हैं । ‘यह रिपोर्ट पूर्णतया भ्रामक और गलत है, मैं स्वयं पच्चीसियों सालों से गौरैयों के संरक्षण कार्य में गंभीरता से लगा हूँ, मैं स्वयं सूक्ष्मता से आकलन कर रहा हूँ और गाजियाबाद, मेरठ के आसपास के देहाती क्षेत्र के हजारों ग्रामीण लोगों से पूछने पर यह पता चल रहा है कि कीटनाशकों के प्रयोग, प्रदूषण और मोबाईल टॉवरों के रेडिएशन से देहाती क्षेत्रों में भी गौरैयों की संख्या में जबर्दस्त और उत्तरोत्तर कमी हो रही है।
वास्तविकता और सच्चाई यही है, कि इस धरती की कई प्रजातियों के विलुप्तीकरण से मानव प्रजाति के आसन्न विलुप्तिकरण का प्रकृति संकेत दे रही है, वैसे भी भयंकर प्रदूषण और रेडिएशन से कैंसर, ब्रेन हैमरेज आदि के रूप में ‘मानवप्रजाति का भी विलोपन ‘शुरू हो चुका है, अतः अब इस धरती के हम ‘कथित सबसे प्रबुद्ध मानवप्रजाति ‘का यह पावन, पवित्र और अभीष्ट कर्तव्य है कि हम इस पूरे ब्रह्मांड में साँसों के स्पंदन से युक्त इस इकलौती धरती को हुई क्षति की भरपाई करने, और इसको भविष्य में प्रदूषण रहित करने के लिए ‘कुछ ऐसा ‘करें कि यह भविष्य में और अधिक प्रदूषित न हो, जिससे इस पर रहने वाले समस्त जैवमण्डल के साथ, स्वयं मनुष्यप्रजाति भी ‘सुरक्षित , निरापद और स्वस्थ्य रह सके, क्योंकि हमारे द्वारा पृथ्वी के इस अकथ्य दोहन करने और भयंकर प्रदूषण से हमारी पृथ्वी का समस्त पर्यावरण गंभीर रूप से ‘घायल ‘हो गया है, अब इसे बचाना और पुनः पृथ्वी के उस घाव को ठीक करना हम मनुष्यों की सबसे बड़ी और महती जिम्मेदारी बनती है।

— निर्मल कुमार शर्मा

*निर्मल कुमार शर्मा

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