ज़हर (कविता )
प्रकृति को जननी
हम कहते हैं फिर भी
उसकी पीड़ा अनदेखी करते हैं।
क्यों बेबस लाचार हुए
शिक्षा का दंभ भरनेवाले
सारे तंत्र बेकार हुए।
प्रकृति अपना संतुलन
स्वयं करती है।
सदियों से प्लेग
महामारी एवं दैवी प्रकोप से
ऐसी बातें भूलकर
हम बस जीये जा रहे हैं
जहरीली हवाओं को
रोकने की कोशिश में
कृत्रिम मास्क लगा रहे हैं।
क्यों नहीं हवाओं की
शुद्धि चाहते
शुद्धता के प्राकृतिक
तरीकों को अपना कर
जन जीवन हरियाली लाते ?
सात समंदर पार
मानव ही नहीं महामारी
भी आती है , यह प्रकृति
हमें चींख चींख कर
बतलाती है।
— आरती रॉय