ग़ज़ल
न जाने किस मिजाज़ का सारा जहान हो गया
ईमानदार आदमी भी बेईमान हो गया
तहजीब और ज़मीर जिनके कर गए हिजरत कहीं
जिस्म उन हजरात का खाली मकान हो गया
ये देख कर हैरान हूँ कि वक्त क्या पलटा मेरा
कल जो चापलूस था वो बदज़ुबान हो गया
मालामाल कर दिया मुझे दे के उम्र भर का गम
महबूब मेरा मुझ पे कितना मेहरबान हो गया
नफरत की आग ऐसे लगाई सियासत ने कि
हंसता-खेलता शहर पल में वीरान हो गया
— भरत मल्होत्रा