व्यंग्य – एक शानदार व्यापार
“मैडम जी नमस्कार! क्या हाल है?सब ठीक है न? अच्छा आपके बेरोजगार बेटे के लिए एक बढ़िया काम लाया हूँ।”
एक ही सांस में रस्तोगी जी ने कहा।
उषा मैडम रस्तोगी जी की बातों को सुनकर मुस्कुरा दीं। “लगता है आपके बेटे की कोई लाटरी लग गई है। नहीं तो आप मुझे देखते ही अपने बेरोजगार बेटे के लिए कोई रोजगार बताने को कहतीं । अब जब कोई ढंग की नौकरी आपके बेटे के लिए तलाशा हूँ तो मोहतरमा बैठीं मुस्कुरा रही हैं।” रस्तोगी जी ने बेतकल्लुफ़ होकर कहा।
उषा मैडम ने कहा, ” जी हां रस्तोगी जी, लाटरी लग गई समझो। मेरे बेटे का बिजनेस बहुत शानदार ढंग से चल रहा है।उसने इन दो महीनों में कई लाख कमा लिए हैं।”
रस्तोगी जी ने आश्चर्य से देखते हुए पूछा-“अच्छा ! किस चीज का बिजनेस कर रहा है आपने मुझे पहले नहीं बताया?”
उषा मैडम ने कहा,”अरे!रस्तोगी जी, यह एक ऐसा बिजनेस है जिसमें न हींग लगे न फिटकरी, फिर भी रंग चोखा।”
रस्तोगी जी ने कहा,” मैडम जी, आप यूं न पहेलियां बुझाइए। आखिर बताइए भी की ऐसा कौन सा बिजनेस है?”
“अरे,क्या बताऊँ? इतना जबरजस्त कि पूछो मत। ” उषा मैडम ने हँसते हुए कहा।
ओहो, अब बताइए भी तो ?रस्तोगी जी बैचनी से बोले।
“एक शानदार बिजनेस और वो है साहित्य का धंधा।”
” ओह! साहित्य का बिजनेस मतलब साहित्य की किताबों की दुकान। उसमें तो आजकल कुछ लाभ नहीं है। पुस्तकों की ठेला लगाने वाले लोग अब मक्खी मारते बैठे रहते हैं। ऊँह! साहित्य की किताबें भला अब कौन पढ़ता है? सब तो फेसबुकिया हो गए हैं। सारा साहित्य सारा ज्ञान अब व्हाट्सएप और फेसबुक पर मिल रहा है।आजकल तो फेसबुकिया साहित्त्यकारों की तो भरमार है।’रस्तोगी जी ने चिंतित स्वर से कहा।
यह सुनकर उषा मैडम ने कहा, “आपने ठीक कहा कि अब फेसबुकिया साहित्यकारों की भरमार है। बस यही हमारा बिजनेस है। ऐसे फेसबुक औऱ व्हाट्सएप पर लिखने वाले साहित्यकारों को हम लोग ऑन लाइन पुरस्कार और सम्मान देते हैं।”
“मतलब”? रस्तोगी जी आश्चर्य से पूछा।
“मतलब यह है कि ऐसे साहित्यकारों को फेसबुक और व्हाट्सएप पर फलाना ढिकाना सम्मान देने का प्रलोभन दिया जाता है।इसके लिए शर्त यह होता है कि हजार-पांच सौ की राशि पंजीयन आदि के नाम पर मांगी जाती है। हम लोग अपना खाता नम्बर दे देते हैं और घर बैठे कमाई हो जाती है। अब सम्मान किसे नहीं चाहिए? भले ही पैसे से खरीदा हुआ हो ।भई आजकल तो सम्मान खरीदे ही जा रहे हैं । साहित्यकार भी सम्मान पाकर फुले नहीं समाते और हम तो खुश ही हैं कि शिकार हमारी मुठ्ठी में फंस जाता है।जैसे कोई शिकारी चिड़िया पकड़ने के लिए दाना डालता है वैसे ही हम लोग साहित्य कारों के लिए सम्मान का दाना डाल देते हैं फिर क्या सम्मान के लालच में साहित्यकार आ जाते हैं।अब तो ऐसे साहित्यकारों की संख्या बहुत बढ़ गई है ।सभी सम्मान की होड़ में आगे निकलना चाहते हैं। हम लोग बस सम्मान पत्र थोक के भाव प्रिंट करवा लेते हैं बस। इधर खाते में रुपये आते हैं उधर सम्मान दे दिया जाता है बाकि हमें कोई मतलब नहीं। अब बताइए है कि नहीं यह तगड़ा बिजनेस?फिर यह सिलसिला तो रुकता ही नहीं।दिनोंदिन सम्मान पत्रों की संख्या में इजाफा हो रहा है।देखा रस्तोगी जी साहित्य के इस उद्योग में कुछ खास करना नहीं पड़ता। मेरा बेटा तो बहुत खुश है।अब तो एक बड़े उद्योगपति के घर से उसके लिए एक रिश्ता भी आया है। अब तो बेटा इस बिजनेस को बढ़ाने की भी सोच रहा है।”
“वो कैसे?” रस्तोगी जी ने पूछा।
“वो ऐसे की आज साझा संग्रह निकालने का चलन हो गया है।इस सांझा संकलन के लिए कुछ रचनायें मंगवा लें साथ ही साहित्यकारों से इस संकलन के लिए तीन -चार हजार ऐंठ ले। इसमें ऐसे साहित्यकार तुरन्त शामिल हो जाते हैं जिनकी रचनाएँ कभी कहीं भी नहीं छपती।ऐसे लोग झटपट अपनी रद्दी लाकर फेंक देते हैं। हमें उनकी रचनाओं से क्या मतलब हमें तो नकद नारायण चाहिए बस। आजकल तो बहुत से लोग ऐसे ही बिजनेस में लगे हुए हैं।”
यह सुनकर रस्तोगी जी ने कहा,”सही फरमा रही हैं आप।आजकल साहित्यकार कुकुरमुत्ते की तरह गांव-शहर सभी जगह उग आए हैं। फेसबुक, व्हाट्सएप, इंस्टाग्राम से लेकर हर ग्रुप में कवि मिल जाएंगे जो अपनी बेतुकी कविताएं हर जगह फेंक जाते हैं ।चाहे कोई पढ़े या न पढ़े ।चलो ठीक है भगवान करे आपके बेटे का यह रोजगार खूब फले-फूले।अब तो शासन को भी चाहिए कि साहित्य के इस बिजनेस का रोजगार कार्यालय में पंजीयन करवाएं। इस धंधे में मेँ भी हाथ आजमाना चाहता हूं।” यह कहते हुए रस्तोगी जी प्रफुल्लित मन से वहाँ से चले गए।
— डॉ. शैल चन्द्रा