कविता

एक गुजारिश…

कुछ वक़्त अपने भी साथ बिता कर देखो,
अपनों की भी कद्र है तुम्हें यह जता कर देखो।

घर की चारदीवारी भी सुकून दिया करती है,
अगर यकीन नहीं है तो ज़रा आजमाकर देखो।

बेड़ियां पहना लो अपने इन आवारा कदमों को,
कैद में भी सुकून है ,इस एहसास को जगाकर देखो।

फिजाओं में हर तरफ मौत का फैला सन्नाटा है,
यकीन नहीं है अगर तो निगाहों को उठाकर देखो।

“कोरोना” की विभीषिका भी टल जाएगी,
हौसले और समझदारी से उसे हरा कर देखो।

— कल्पना सिंह

*कल्पना सिंह

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