ऐ जिंदगी! ठहर जा
ऐसी भी क्या नाराजगी है ,
जो हाथ छुड़ाकर जाती है।
ऐ जिंदगी! ठहर जा न,
हम भी तेरे ही साथी हैं।
तेरी नफरत से देख तो ज़रा,
जान पर आ बनी है सबकी।
उजड़ रही है दुनिया मानव की,
लौट कर आबाद कर दे न फिर से।
परिंदों की तरह चारदीवारी में,
आजकल कैद है सांसे सबकी।
अपनी रहमत भरी नजर को,
एक बार फेर दे न फिर से।
ये माना कि बिन बात ही नहीं,
रूठ कर तू बैठी है हमसे।
माफ कर दे न एक बार,
जो गलतियां हो गईं हमसे।
मौत की नजदीकियों ने,
कीमत तेरी बतलाई है।
टूटते हौसलों में भी,
याद तेरी ही आई है।