कविता

ऐ जिंदगी! ठहर जा

ऐसी भी क्या नाराजगी है ,
जो हाथ छुड़ाकर जाती है।
ऐ जिंदगी! ठहर जा न,
हम भी तेरे ही साथी हैं।

तेरी नफरत से देख तो ज़रा,
जान पर आ बनी है सबकी।
उजड़ रही है दुनिया मानव की,
लौट कर आबाद कर दे न फिर से।

परिंदों की तरह चारदीवारी में,
आजकल कैद है सांसे सबकी।
अपनी रहमत भरी नजर को,
एक बार फेर दे न फिर से।

ये माना कि बिन बात ही नहीं,
रूठ कर तू बैठी है हमसे।
माफ कर दे न एक बार,
जो गलतियां हो गईं हमसे।

मौत की नजदीकियों ने,
कीमत तेरी बतलाई है।
टूटते हौसलों में भी,
याद तेरी ही आई है।

— कल्पना सिंह

*कल्पना सिंह

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