कवि की दीवानगी
मुझको साहब कविता लिखने का खब्त हो गया , मैं रोज जो भी मन में आए कविता ,बकवास दूसरों के शब्दों में ,लिखने लगा क्योंकि मैं तो अपनी कविताओं का सृजनकर्ता हूं मैं तो बकवास नहीं कह सकता । मैं अपनी कविताओं को लोगों को सुनाने में उत्सुक रहता पर सुने कौन ।अपनी कविताएं किस को सुनाए । लोगों को रोकता था अपनी कविताओं को सुनाने के लिए पर कोई सुनने को राजी हो नहीं होता था । अपनी कविताएं सुनाए बिना बड़ा बैचेन हो गया कोई तो सुन ले मेरी रचनाएं पर कोई राजी नहीं होता था ।
एक दिन यह सोचा चलो किसी होटल चलते है वहां कोई होगा बैठा उसे चाय और समोसे खिला कर सुनाऊंगा अपनी कविता मन हलका हो जाएगा । मेरा गुबार भी निकाल जाएगा । मैं घर से उठा अपनी बाइक उठाई जेब में पैसों का बटुआ रखा और निकल पड़ा पास के होटल में । होटल अभी खाली था एक मेज में बैठ गया और दरवाजे की तरफ देखने लगा । इतने में एक प्रौढ़ सज्जन घुसते दिखे । मैं बहुत खुश हुआ और उन्हें नमस्कार किया उन्होंने भी प्रतिउत्तर में अपने दोनों हाथ जोड़ दिए । मैंने उनसे कहा आइए मिल कर एक साथ चाय पीते है और खायेगे भी
वो बोले हूं । मैंने कहा हां और उन्हें अपनी टेबल पर बैठा कर चाय समोसों का ऑर्डर दे दिया और अपना कविता पाठ शुरू कर दिया । बीच बीच में खाने का और सामान भी ऑर्डर देता रहा । अपनी एक कविता के बाद दूसरी कविता उनके सामने परोसता रहा वो बड़ी तन्मयता से मेरी ओर देखते रहे मुझे इससे प्रोत्साहन मिलता रहा । काफी देर होने के बाद चाय आदि पीने के बाद वह हाथ जोड़कर खड़े हो गए और बोले- अब चलता हूं । चलते हुए मैंने उनको अपना परिचय दिया वो अपने हाथों को कान के पास हिलाते हुए बोले- मैं कुछ सुन नहीं सकता, बेहरा हूं ।
— ब्रजेश