ग़ज़ल
मुझे मालूम है कंधे से उठ, सर पर चढ़ेगा वो,
मगर खुश हूँ कि है मेरा लहू, मुझसे बढ़ेगा वो।
तुम्हें तख़लीफ़ क्यों होती,बताओ देखकर झुकते,
पढ़ाया जो उसे मैंने, वही सब तो पढ़ेगा वो।
यही दस्तूर है जग का कि जैसा बीज फल वैसा,
मिलेगा गुरु जिसे जैसा, उसी जैसा गढ़ेगा वो।
चला चरखा, बनाया सूत, बेमन और बेढंगा,
अगर बिगड़ा हुआ है सूत तो बिगड़ा कढ़ेगा वो।
गटक सब, लीलता मीठा व कड़वा थूक देता जो,
अवध हर दोष – ऐबों को भी दूजे पे मढ़ेगा वो।