कविता

अपना अपना चश्मा

चश्में का क्या
सब अपने अपने चश्में से देखते हैं
सब के चश्में अलग अलग
कोई चश्मा लगा कर सुंदरता देखता है
किसी को दिखती बदसूरियत है
क्योंकि सभी के चश्मों का नंबर एक सा नहीं
सबके नंबर हैं अलग अलग
किसी का पास का है
किसी का दूर का है
कोई दोनों नंबरों के अलग अलग रखता है
किसी के दोनों एक ही चश्में में हैं
इसी लिए लोगों को चीजे दिखती है अलग अलग
सावन के अंधे को दिखता हरा ही हरा
और उल्लू को लगे अंधेरा ही भला

— ब्रजेश

*ब्रजेश गुप्ता

मैं भारतीय स्टेट बैंक ,आगरा के प्रशासनिक कार्यालय से प्रबंधक के रूप में 2015 में रिटायर्ड हुआ हूं वर्तमान में पुष्पांजलि गार्डेनिया, सिकंदरा में रिटायर्ड जीवन व्यतीत कर रहा है कुछ माह से मैं अपने विचारों का संकलन कर रहा हूं M- 9917474020