ग़ज़ल
जहां कोई बागबाँ न होगा |
ज़मीन पे आसमां न होगा |
जो छोड़ बैठे उमीद दामन –
तो फिर कहीं आशियाँ न होगा |
न पा सकेगा वो मंज़िलों को-
अगर कोई रहनुमा न होगा |
ग़मो के बादल नहीं छटेगें –
अगर कोई राज़दा न होगा |
जहाँ वही आसमां वही है-
गुज़र चुका कारवां होगा |
अगर न बदला मिजाज़अब भी –
ये तयशुदा ग़म बयाँ न होगा |
रकीब बन कर जो फिर रहे हो-
मेरे तेरे दरमिंयाँ न होगा |
है अलहदा ये वतन हमारा-
के हिंद सा साएबाँ न होगा |
जमात में बैठ रोग बांटे-
के इन के जैसा मियां न होगा |
वतन परस्ती जो भूल बैठे-
यूं उन से बढ़ खाकदाँ न होगा |
‘मृदुल’ दिलों में भरा ज़हर क्यों-
यूं इस तरह शादमां न होगा |
मंजूषा श्रीवास्तव’मृदुल’
लखनऊ