विश्वास
”तिराहे की पीर कोई-कोई ही जान सकता है, या तो प्रेमी या फिर पागल!” मन की वल्गा के एक छोर ने कहा.
”सही, बिलकुल सही, जा के पांव न फटी बिवाई वो क्या जाने पीर पराई.” दूसरा छोर मुखर हुआ.
”अपने चलाने वाले चालक के बारे में भी तो सोचो न!” तीसरे छोर ने कहा.
”यह चलाना भी कोई चलाना होता है, तो फिर हाँकना क्या होता है?”
”चालक पर विश्वास न करने से हम दिग्भ्रमित होते हैं, हम दिग्भ्रमित होते हैं तो दिशाएं उद्भ्रांत हो जाती हैं, दिशाएं उद्भ्रांत होती हैं तो सारथि गुमराह हो जाता है. विश्वास से विश्वास होता है.”
शायद यह सबके अंतर्मन की आवाज थी.