बंजारा
सब कुछ रह जाएगा यहाँ चलता रहे बंजारा। न कहीं घर है न गाँव, फिर भी क्यूं लगाव है? चल चलता रहा अपनी गठरी को सदा कंधे पे लिए। समेटकर ज़िंदगी उसी में फिर भी न कोई अलगाव है।
तपिश हो भूमि की, चाहें हो आग पेट की, आगे बढ़ता रहता है। हर गाँव की मिट्टी को समेटे हुए, चलता रहता बस यही तो लगाव है। कहीं हो मौसम की मार, कहीं हो महंगाई की मार । कहीं हो अपनों की मार, कहीं आतंक के हैं लगे पड़ाव।
पाना न कुछ, न कुछ लेना मुझे, बस चलते ही रहना है। बंजारा हूँ मैं, न घर है, न कोई ठिकाना है। बस यूंही चलते रहना है … !
— पंकज त्रिवेदी
सुप्रभातम्
जब भी कुछ लिखते लिखते आत्मानुभूति प्रसन्नता की ओर अग्रेसर ले चलें तब वो अभिव्यक्ति सर्वकालीन-सर्वानुभूति में बदलते देर नहीं लगती। मन की ऐसी स्थिति में ऐश्वर्य की चमत्कृति होती है जो हमें दूसरों से अलग पहचान देती हैं।
आयासपूर्ण लेखन से बेहतर होगा हम चुपचाप कुछ नया पढ़ते रहें और अपने विचारों को संजोकर उस पर चिंतन करते रहें। विचारों की समृद्धि जैसे जैसे बढ़ती जाएंगी, कलम अपनेआप दौड़ती हुई हमें कहाँ से कहाँ ले जाएगी उसकी हम कल्पना भी हम नहीं कर सकते। साहित्य आयास का रूप नहीं, अनायास का अमूर्त रूप है। जो कागज़ पर आने के बाद मूर्त रूप में तबदील होता है।
शर्त यही कि वो अमूर्त से मूर्त तक इतनी सहजता से पाठकों को ले जाएं कि पाठकों के चित्त में प्रसन्नता ही व्याप्त हो जाएं।
अभिव्यक्ति अधिकार से नहीं, भक्ति और समर्पण की ज़मीं पर फूलती-फलती हैं।
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— पंकज त्रिवेदी