वक्त की मार से जीना सीखता है आदमी।
तजरबाकार हुनरमंद दिखता है आदमी।
चर्चे आम होते हैं हर गली हर शहर में,
पैसों के लालच में जब बिकता है आदमी।
छुप जाती खामियां कितनी भी क्यों न हों,
जब आदब से सिर झुकाता है आदमी।
हालत क्या होती होगी उस बदनसीब की,
अर्श से फर्श पर जब गिरता है आदमी।
कितना भी सँभल ले है गलती का पुतला,
कर जाता फिर भी कहीं खता है आदमी।
कितनी महान हो जाती वो शख्सियत भी
आपनी ही कमजोरिया लिखता है आदमी।
बिन अपराध अपराधी है समाज में बनता,
लोगों की नज़र में सुबकता है आदमी।
लुटते हैं दरिंदे आबरू बेख़ौफ राहों पर,
कानून के खिलाफ तब चीखता है आदमी।
गिरफ़्त में आ कर भी हैं छूट जाते दरिंदे,
शिव कितना लाचार सा दिखता है आदमी।
— शिव सन्याल