‘टाइम’ और ‘सक्सेस’ मालिक नहीं, सिर्फ़ दास है !
एक समय की बात है, अवंतिका युवराज को अपने रूप का घमंड हो गया था। एक दिन जब उसके द्वारा म्लेच्छ खोपड़ी देखा गया, तब उसने यह जाना कि मानवीय खोपड़ी में ऊपरी त्वचा की सुंदरता तो मात्र दिखावा है, तो उसी दिन वे वैरागी हो गए ! सुंदरता तो फिनाइल की सफेद गोली है, जो काला कोयले के प्रसंगश: तैयार की जाती है । काले-गोरे तो सम्पूर्ण दुनिया में व्याप्त है । यह तो कुम्हारों के आँवे से निकले बहुरंगे बर्त्तनों के समान हैं ! गोरी हिम का अभिमान गल जाती है और काले बादलों के भी ! काले कौवे की विष्ठा सफेद होती है, तो क्या ईर्ष्यालु गोरेजन काले वर्णधारक लोगों के पैखाना होंगे, नहीं न ! ‘ब्लैक डॉग’ कहनेवाले अंग्रेज वहाँ चले गए, जहाँ का नाम है- हवाखाना यानी वापस ! जगद्गुरु व्यास, पृथ्वी नृपेश ययाति, नेल्सन मंडेला, रंजीत सिंह, देवर्षि नारद, सदाशिव शंभू काले ही थे, राष्ट्रपिता गाँधी जी भी ठिगने कद के थे । काला रंग ऐसा है, जिनपर अन्य कोई रंग नहीं चढ़ता है । काली कोयल मीठी गीत सुनाती है, पर सफेद बगुले की बगुला भगत-नीति जगजाहिर है । वहीं इसके उलट भी उदाहरण हैं कि सफेद हंस विचारवान है, पर काले कौवे की कपटता को कौन नहीं जानता ? दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं । तभी तो कालिदास ने गुण को बड़ा माना है, रूप को नहीं ! विज्ञान लेखिका मेरी स्टीप्स युवावस्था में अपनी सुंदरता के लिए विश्वप्रसिद्ध थी । इससे उन्हें अभिमान हो गई । स्टीप्स के पिता ने उसकी अहम भाव को भाँपते हुए कहा- ‘बेटी, जिस रूप पर तुम गर्व कर रही हो, इस सुंदरता का श्रेय तुम्हें नहीं, बल्कि प्रकृति को है । वैसे युवावस्था में सब सुंदर ही लगते हैं । तुम्हारी उपलब्धि तो तब होगी, जब तुम 60 वर्ष की अवस्था में ऐसी ही सुंदर और आकर्षक दिखोगी !’
पूँजीपतियों द्वारा बना ग्रेटमैन ही गेटमैन है ! विश्व इतिहास में सुदर्शन के कहने पर उसकी पत्नी ओध्वंती अपनी शरीर को पति के दोस्त को सौंप दी थी, उसीतरह जमदग्नि ने अपनी पत्नी रेणुका को, महान दार्शनिक सुकरात ने अपनी पत्नी झिंटिप को तथा रोम के पत्नी एवं प्रजापति दक्ष की 60,000 कन्याएँ भी इस ‘होम’ में शामिल थी…..
श्री रामचन्द्र को किसी चीजों की कमी नहीं थी, मर्यादापुरुषोत्तम पर भी उन्हें झाड़ियांयुक्त बीहड़ जंगलों में जाना पड़ा था, 80 किलोग्राम वजन के 2 अलग-अलग तलवारों को दोनों हाथों में एकसाथ उठाकर लड़नेवाले राणाप्रताप को 20 साल तक घास की रोटियाँ चबानी पड़ी थी, उस पर भी ऐसे ताकतवर की बेटी के हाथ से वनबिलाव भी रोटियाँ छीनकर खा लेती है । …..तभी तो विनोबा भावे ने अपने विचार प्रकट किया है कि धन को द्रव्य कहा गया है अर्थात बहनेवाला । रुक जाएगा, तो उससे सड़ांध-गंध आने लगेगा । भारतेंदु हरिश्चंद्र ने कहा है– इस धन-संपत्ति और राजपाट ने मेरे पुरखों को खाया है, मैं इसे ही कहा जाऊँगा। सच में लघुबीज में ही विशाल बरगद की नींव छिपी है।
यह सच है, मेढ़क का बेटा मेढ़क होता है, लेकिन मनुष्य में चपरासी का बेटा लाट-गवर्नर और कलक्टर का बेटा कबाड़खाने में ताला ठोंकनेवाला हो सकता है ! मजदूर तो पूँजीपतियों के अग्रज हैं, क्योंकि कोयले की खान से ही हीरे निकलते हैं और बालू के संपर्क में आने से सीप मोती बन जाता है । कोयला सस्ता ही सही, पर हीरे का मूल्य कभी महाराजा रंजीत सिंह ने पाँच जूतियाँ आंके थे ! कार्ल मार्क्स के विचार थे- पैसे से आप बिछौना खरीद सकते हैं, पर नींद नहीं । ……पर हाँ, नींद की गोलियाँ तथा क्लोरोफार्म का टेबलेट नींद व बेहोशी लाते-लाते एक दिन मौत की नींद सुला देते हैं ! संपत्ति की अर्जना ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’ कहावत लिए होती है, क्योंकि भाँग-भाँग कहने से नशा नहीं चढ़ता है । एक लोकप्रचलित गीत है– बड़े घर की बेटी लोग, लम्बा-लम्बा चुल; ऐरो माथा बहान दिबो, लाल गेंदा फूल। वेस्टर्न वर्ल्ड में सात-आठ साल की लड़की ही गर्भपात कराती हैं । इसी विलासिता में डूबे अमेरिकी भगिनी और भाइयों को भारतीय संत स्वामी विवेकानंद ने अपने बोधगम्य प्रवचन देकर उबारे थे । कोई धनी रहे या नहीं, पर परिश्रम ही भाग्य के पर्याय हैं । आगरा के एक होटल के मालिक श्री कर्दम हैं, जो पहले फुटपाथ पर जूते पोलिश किया करते थे वे टूटे चप्पलों की मरम्मत किया करते थे, किन्तु परिश्रम और पुरुषार्थ के बल पर लोकप्रिय विधायक बन जाते हैं ! वरदराज और कालिदास तो पहले-पहल महामूर्ख थे, परंतु आज लोग उन्हें क्रमशः व्याकरणवेत्ता और कविषु कालिदासः श्रेष्ठ: कहते हैं । नारी के साथ कामुकता, सर्वाधिक धनी कहलाने की जिद, किसी क्षेत्र में रिकॉर्ड कायम करना, फलाँ स्टेट का बॉस कहलाना इत्यादि विशेषण ‘महानता’ के विलोम हैं ! यही कारण है, मंसूर की हत्या, सुकरात को विष, भक्तिन मीरा को सर्प-पिटारी, गाँधी को गोली, भगत को फाँसी इत्यादि दुखांत घटनाएँ ही उद्धम सिंह का जन्म देते हैं……
गल्प है या सत्य उद्धरण है कि पं. मोतीलाल ने पुश्तेनी या वकालत पेशा से अर्जित आय से पूरे भारत को 6 माह बिठाकर खिलाते ! ……. तो पूरे संसार को 2 दिन तक खिला सकते थे ! पंडित नेहरू के पूर्वज नहर के किनारे रहते थे, क्योंकि उन्हें नहरू-नहरू कहा जाकर अपभ्रंश ‘नेहरू’ हो गए हों ! सारण प्रमंडल में तम्बाकू की खेती होती है, तो क्या राजेन्द्र बाबू उस क्षेत्र से आये कि नहीं ! जाति-भावना से परे हटकर सोचिए कि फारवर्ड माने उच्च सोच रखनेवाले और बैकवर्ड माने संकीर्ण सोच रखनेवाले ! महात्मा बुद्ध कहा करते थे- ‘कोई जन्म या जाति से ब्राह्मण नहीं है, सादा जीवन एवं उच्च दर्शन ही ब्राह्मणत्व है ।’ संत विनोबा भावे के वचन है- ‘मेहतर तो महत्तर होता है ।’ अंग्रेजी की सात महत्वपूर्ण पंचलाइनों व शीर्षकों में, यथा- ब्लैक इस ब्यूटीफुल, ओल्ड इज गोल्ड, आल थिंग्स आर ब्राइट एंड ब्यूटीफुल, एज यू लाइक इट, आल मेन मस्ट डाय, पुअर इज पावर तथा जेनरल इस ग्रेट तो व्याख्यार्थ सटीक एवं सार्थक हैं । इतना ही नहीं, धर्म पर पंडित जवाहरलाल नेहरू ने लिखा है- ‘आदमी धर्म के लिए झगड़ेंगे, धर्म के लिए लिखेंगे, धर्म के लिए मर-मिटेंगे, किन्तु धर्म के लिए जीयेंगे नहीं !’ अतः, मनुष्यों को सर्वजनहिताय कुछ न कुछ सोचते रहना चाहिए, अन्यथा खाली मन तो शैतान का प्लेटफॉर्म होता है….. क्योंकि उसे डनलप के शानदार पलंग पर भी नींद नहीं आ रही थी और उधर तपती दोपहर में यह जिच्छुआ ही था, जो खेत की उबड़-खाबड़ मिट्टी के ढेर पर पड़े-पड़े मीठी नींद ले रहा रहा । बेशक, जिच्छुआ ही आज सबसे ज्यादा सुखी हैं । स्वामी विवेकानंद के विचारों में संग्रहित है- ‘जो गरीब सारे बंधनों से रहित है, वही ब्राह्मण है ! ऐसा हो, संसार की सारी जाति ब्राह्मणमय हो जाय !’ एतदर्थ, धारणाएँ दो प्रकार के होते हैं- सामान्य और विशिष्ट । सामान्य धारणाएँ बहिर्मुखी होती हैं, अनुभवप्रसूत नहीं ! जबकि विशिष्ट धारणाएँ अंतर्मुखी व्याख्या है एवं उनका संबंध अनुभवलोड़ित होता है।
अतिशय गंभीर चिंतन करने एवं इतिहास के गरिमामंडित पन्नों को पलटने से यह तथ्य उजागर होता है कि ऐसे अनेक संत-महात्माओं एवं अन्य महापुरुष इस जगत में अवतरित हो चुके हैं, जिन्होंने देशहित, जगहित व मानवहित में न केवल अनेकानेक कष्ट झेले हैं, वरन आवश्यकता पड़ने पर जान की बाजी लगाकर स्वदेश और स्वधर्म की रक्षा किए हैं । राष्ट्रकवि दिनकर जी ने कहा है- ‘शांति नहीं तबतक, जबतक सुखभाग न नर का सम हो; नहीं किसी को अधिक मिले, नहीं किसी को कम हो !’ तभी तो किसी भी देश के प्रेमचंद, दिनकर या शेक्सपीयर उस देश के राष्ट्रपति व प्रधानमंत्री से भी बड़ा और महान होते हैं । प्रेमचंद जिंदगीभर गरीबी में जीते हैं, तभी तो वे कहते हैं- ‘मैं मजदूर हूँ, जिस दिन न लिखूँ; उस दिन मुझे रोटी खाने का अधिकार नहीं है ।’
सक्षम देह्यष्टि यानी शारीरिक कद-काठी से मजबूत व्यक्ति, जो रक्षार्थ व क्षात्र धर्म अपनाते हैं, वह क्षत्रिय नहीं तो क्या है ? राजा के पुत्र राजपूत, अगर राजा अनुसूचित वर्ग से भी हो, फिर भी…… उद्धरण कहावत लिए है कि मारवाड़ से एक तैलिक बंधु सिर्फ लोटे लेकर कलकत्ता पहुंचते हैं और वे वहाँ कुछ बरस रहकर मारवाड़ी सेठ बन जाते हैं ! सिख धर्म में पंचप्यारे क्या शूद्र नहीं थे ? स्पष्ट करूँ तो सम्प्रदाय तो कर्म के आधार पर है, यथा– वाणिज्य में आया, तो बनिया; कुंभ बनाया, तो कुंभार या कुम्हार; वहीं दक्षिण भारतीय रामाराव तो संभवतः यायावर हैं ! अंग्रेजी में तो पेशे के आधार पर ही जाति का नाम है ! हिंदी उपन्यास ‘मैला आँचल’ में कुर्मी, कहार, धानुक इत्यादि पिछड़ी जातियों को भी क्षत्रिय कहा गया है । हिंदी उपन्यास ‘पुनर्नवा’ में राजभर या राजभट जाति को कायस्थ बताए गए हैं, जबकि आरक्षण-सूची में ये पिछड़ी जाति हैं, जबकि स्वामी श्रीधर रचित पुस्तक ‘अमीघूँट’ के अनुसार राजभर के अपभ्रंश ‘राजा भर’ तो जाति के दुसाध थे । चौधरी तो ‘डोम’ व ‘भंगी’ की भी उपाधि है और ब्राह्मणों में भी चार वेदों को कंठाग्र करनेवाले को चतुर्वेदी या चौबे कहा गया है । ध्यातव्य है, चौबे ब्राह्मण मुरब्बे मिठाई के बड़े प्रेमी होते हैं, तो कुम्हार भी मुरब्बे के प्रेमी हैं, क्योंकि वे गीली मिट्टीयुक्त हाथों से भी सूखे मुरब्बे खा लेते हैं । चूँकि मुरब्बा ‘कुम्हड़ा’ का बनाया जाता है, एतदर्थ कुम्हड़ा का ही अपभ्रंश ‘कुम्हार’ है । तभी तो श्री रामकृष्ण परमहंस शूद्र को सबसे शुद्ध और महासमुद्र कहा करते थे…..
सोचने के लिए विवश करनेवाली कहानियों के लेखक जैनेन्द्र कुमार ने कहा है- ‘आवश्यकता से अधिक मजबूत शासन को भी अंत में बिखरना पड़ता है ।’ मानवधर्म तो यह है कि एक उपवन के ही हम सब सुमन हैं । आज के दौर में धर्म कुकुरमुत्ता की तरह उगते जा रहे हैं, लाजवंती की तरह मुरझाते हैं और हैजे की मरीज की तरह दम तोड़ देते हैं । श्री माखनलाल चतुर्वेदी ने ‘पुष्प की अभिलाषा’ में अपनी अभिलाषा व्यक्त की है । एक उद्धरण है, पागल कुत्ता या हाथी ईश्वरांश के अवतार हैं तो उनसे बचकर रहिये । न्यूटन या आर्किमिडीज किसी विश्वविद्यालय के छात्र नहीं थे, न ही कोई शौकिया वैज्ञानिक थे, पर उनमें प्रतिभा अपनेआप आयी । संत विनोबा भावे के अनुसार- ‘हिन्दू का अर्थ हिंसा से दूर और इस्लाम का अर्थ शांति से है ।’ ऐसा कहा जाता है, श्रीरामचंद्र द्वारा शूद्र शम्बूक का वध किया जाता है, तो पांडवों द्वारा मृग का मांस खाये जाते हैं ! हिन्दू धर्म में माँ काली के समक्ष बकरे की बलि, तो इस्लाम धर्म में एतदर्थ कुर्बानी दी जाती है ! थाईलैंड में बौद्ध भिक्षु मांस खाते हैं, तो वहीं यीशु मसीह द्वारा मछली खाये जाने के प्रमाण मिले हैं ! ………दूसरी तरफ, मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे और गिरजे में चढ़ावे विशुद्ध शाकाहारी होते हैं ! हिन्दू सबसे प्राचीन धर्म है, ईसाई धर्म का उदय बौद्ध धर्म से तो कहीं नहीं हुआ है ? पारसी क्या इस्लाम के भय से उत्पन्न तो नहीं हुआ ? ब्राह्मण-क्षत्रिय, वैश्य-शूद्र, शिया-सुन्नी, केथोलिक-प्रोटेस्टेन्ट, हीनयान-महायान, श्वेताम्बर-दिगम्बर…… ये विभाजन क्या है ? यही कारण है, पवित्र कुरान में ‘रव्व-उल-आलमीन’ कहा गया है, न कि ‘रव्व-उल-मुसलमीन’! मुसलमान, मुस्लिम, मुसलमीन, मोहम्मडन जैसे शब्द क्या किसी इस्लामिक धर्मग्रंथ में है ? हिन्दू, हिंदी, हिंदुस्तान जैसे शब्द क्या किसी सनातन धर्मग्रंथ में है?
अगर बिगबैंग हो, तो भी यह अवधारणा ख़ारिजयोग्य नहीं ही है कि सृष्टि की उत्पत्ति शब्द से हुई है । खुद (स्वार्थ) के विलोम व निःस्वार्थ ‘खुदा’ है, भग से परे ‘भगवान’….. नारी (नाड़ी) तो पसली है । नर जहाँ रहते हैं, वो मृत्युलोक ही नरक है । स्वर या शब्द ही स्वर्ग है । माँ की ममता या आया (दाई) की ममता ही माया है । संत महर्षि मेंहीं की अग्रजा जब मृत्यु को प्राप्त हुई, तो स्वयं संत महाराज भी रो पड़े थे, यही माया है ! काजल की कोठरी में कोई भी सयाना जाएंगे , तो उसे थोड़ी-सी भी काजल लगेंगे ही । ‘इंसान’ की उत्पत्ति अरबी शब्द ‘निसयान’ से हुई है । भावार्थ है, निशा में विचरण करनेवाला यानी निशाचर । ध्यातव्य है, रावण ब्राह्मण थे । कथ्य है, वाल्मीकि रामायण में ‘बुद्ध’ शब्दोल्लेख, वेद में ‘नाई’ शब्दोल्लेख, एक ही समय श्रीविष्णु के अवतार श्रीराम और आचार्य परशुरामजी का एक-दूसरे के प्रति क्रोधित होना, खड़ाऊँ यानी एक तरह के चप्पल का 14 वर्ष तक राज करना, अत्यल्प उम्र की अभिमन्यु-पत्नी उत्तरा के द्वारा गर्भधारण, शकुनि और युद्धिष्ठिर के बीच जुए का ओलंपिक होना, दृष्टिहीन का भारत-सम्राट बनाना, कुम्भकर्ण जैसे विस्मित पात्र से भेंट कराए जाने से लगता है, भविष्य में डॉ. राजेन्द्र प्रसाद अगर ‘ब्रह्मा’, गाँधी जी अगर ‘विष्णु’, राजा विक्रमादित्य ‘इंद्र’, स्वामी विवेकानंद ‘शिव’, थेल्मा टाटा ‘लक्ष्मी’, हेमा ‘पार्वती’ और सरोजिनी नायडू व लता मंगेशकर अगर ‘सरस्वती’ भी कहलाये, तो क्या आश्चर्य ? ….क्योंकि सृष्टि का अन्यार्थ में एक अर्थ ‘विचित्रता’ भी है।
कवितांश है-
“मानव की आँख के बदले अगर काँच की लगाई जाए,
तो वो देख नहीं पाएंगे !
कि आदमी के कलेजे के बदले वहाँ,
किसी भी धर्म के पूजास्थलों के प्रतीक लगा देने से
आदमी क्या जिंदा रह पाएंगे ?
जिसतरह सूर्य का धर्म है- ताप देना,
चंद्रमा का धर्म है- शीतलता प्रदान करना,
धरती का धर्म है- अन्न देना,
काश ! मानव भी समझता कि मानव का धर्म है
मानव की सेवा करना।”
संत कवि कबीर ईश्वर से प्रार्थना करते हैं-
‘साईं इतना दीजिए, जामे कुटुंब समाय;
मैं भी भूखा ना रहूँ, साधू भी भूखा न जाय।’
अंग्रेजी कहावत का हिंदी रूपांतरण भी है–
‘धन गया, तो कुछ नहीं गया । स्वास्थ्य गया, तो कुछ गया।
पर चरित्र गया, तो सबकुछ चला गया।’
कंप्यूटरयुक्त विशेष ज्ञान न होकर ‘विज्ञान’ विपरीत ज्ञान भी हो गया है । डायनामाइट का गलत इस्तेमाल और युवाओं में कुतर्क व्यवहार से तो यही लगता है। शांतिदूत कबूतर शाकाहारी हैं, किन्तु मैंने उसे देखा है, तिलचट्टे को मारते हुए ! यह सब जान बचाने के लिए चाहिए ही, आत्म-समर्पण कमजोर ही हमेशा क्यों करें ? गीतासार तो सुस्पष्ट है– जो हुआ, अच्छा हुआ । जो हो रहा है, वह भी अच्छा ही हो रहा है । जो होगा, वह अच्छा ही होगा । तुम्हारा क्या गया, जो तुम रुओ रहे हो ! तुम धरती पर क्या लाये थे, जो तुमने खो दिया । तुमने क्या पैदा किया, जो नष्ट हो गया । तुमने जो लिया, यहीं से लिया । जो दिया, यहीं को दिया । जो आज तुम्हारा है, कल किसी और का था, परसों किसी और का हो जाएगा, क्योंकि परिवर्त्तन ही संसार का नियम है और संघर्ष ही जीवन है । ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन’ कहना अपरिहार्य नहीं है, सच्चाई है । वैज्ञानिक न्यूटन के तीसरा गति नियम अर्थात प्रत्येक क्रिया के विपरीत और बराबर प्रतिक्रिया होती है । विचार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सबको मिली है, किन्तु यह सत्य और तथ्यों पर आधारित हो।
एक भाषा ‘हिब्रू’ एक आजाद देश की राष्ट्रभाषा है, किन्तु आजादी के कई वर्षों बाद भी हिंदी भारत की राष्ट्रभाषा नहीं बन पाई है । यह दीगर बात है, श्रीमान अटल बिहारी वाजपेयी जी संयुक्त राष्ट्र संघ में हिंदी में भाषण देने वाले प्रथम व्यक्ति हैं। बकौल, आदरणीय अटल जी की कविता-
‘मेरे प्रभु !
मुझे उतनी ऊँचाई मत देना कि गैरों के गले न लगा सकूँ,
उतनी रुखाई कभी मत देना,
ऊँचे पहाड़ों पर पेड़ नहीं लगते,पौधे नहीं लगते,
न घास ही जमती है ।
जमती है सिर्फ बर्फ,
जो कफन की तरह सफेद और मौत की तरह ठंढी होती है…..’
समाचारपत्रों की सुर्खियों में रहना और हमेशा ही चर्चित रहना महानता नहीं, हीनताबोध है । सवर्णों के बीच अनुसूचित जाति के डॉ. भीमराव अंबेडकर की विद्वता चहुँओर सराहे गए । वे संविधान के प्रारूप समिति के अध्यक्ष है । इस्लामिक देश पाकिस्तान के संविधान के निर्माता डॉ. योगेंद्र नाथ मंडल हिन्दू थे, तो ‘सारे जहाँ से अच्छा, हिन्दोस्तां हमारा’ लिखनेवाले मुस्लिम थे । आखिर हम धर्मवाद-जातिवाद क्यों करें ? प्रजातंत्र से आशय यह तो नहीं कि हमारी सम्पूर्ण जनसंख्या प्रधानमंत्री बन जाय ! लॉर्ड वेलेजली भी ब्रिटिश भारत के गवर्नर जनरल थे, किन्तु सर्वाधिक पहचान लॉर्ड माउंटबेटन का है ! सलमान रुश्दी का लेखन हो या खैरनार के कार्यों में ईमानदारिता…. यह दो अवस्थाएँ हैं, बावजूद एकल तथ्य लिए हैं । गाँधी जी को ही लीजिए, वे औसत छात्र रहे हैं, कैटल का अर्थ तक नहीं जानते हैं, तो बड़े हास्य हस्ती चार्ली चैपलिन तक को नहीं पहचानते हैं, पट्टाभिसीतारमैया के प्रति कुछ ज्यादा ही अनुराग रखते हैं, ताज़महल देखने नहीं जाते हैं, क्योंकि उसे वे गरीब व मजदूरों के शोषण का प्रतीक मानते हैं, अमीरों के प्रतीक विमान यात्रा नहीं करते हैं ! कहने का मतलब यह है कि महानता में भी सामान्यता छिपी रहती है । वहीं, राजसूय यज्ञ में श्रीकृष्ण ने आग्रहकर आगंतुकों के पैर धोये, तो भोज के जूठे पत्तल भी उठाए व जूठा साफ भी किये । श्रीराम और श्री भरत में से दोनों ने राजतिलक की गेंद एक-दूसरे की ओर लुढ़काने में कोर-कसर न छोड़े । चाणक्य तो प्रधानमंत्री थे, पर झोपड़ी में रहते थे । राजा जनक ने हल चलाये । बादशाह नासिर उद्दीन टोपी सी-सीकर गुजारा करते थे । छत्रपति शिवाजी अपने गुरु के नाम पर राज चलाते थे । सम्राट अशोक तो पहले चंड अशोक थे, जिन्होंने 99 भाइयों को मारकर राजगद्दी हासिल किए थे । द्रोणाचार्य आचार्य होकर भी नौकरजन्य कार्य भी करते थे । बीरबल जंगलों से लकड़ी काटकर बेचने का कार्य करते थे । सिख धर्म के छठे गुरु अर्जुन देव जूठे बर्त्तन माँजने का कार्य भी किये । गाँधी जी जाति से तेली थे, वे साबरमती आश्रम में पैखाना तक साफ करते थे, ऐसा विनोबा भावे भी किया करते थे । गोल्डामेयर चपरासी के क्वार्टर में भी पहुँचती थी । पंजाब के मुख्यमंत्री रहे बरनाला जी जनता की अदालत में जनता से दंडस्वरूप जूते की मार खाये थे ! कई राज्यों के मुख्यमंत्री तो साईकिल से ही दफ्तर जाया करते हैं । मुनि अगस्त्य जी, नारद जी, विदुर जी, तो वहीं सिकंदर, चंद्रगुप्त इत्यादि तो दासीपुत्र थे ! महर्षि व्यास, दानवीर कर्ण, यीशु मसीह इत्यादि कुँवारी माँ की संतान थे, जो कालांतर में क्रमशः मछुआ, सारथी और बढ़ई पिता के संरक्षण पाए । डॉ. अंबेडकर के गले से हाँड़ी बाँध दिया जाता था, ताकि उनकी थूक से धरती दूषित न हो जाय ! वाशिंगटन, लिंकन आदि बचपन में जूते सीने का कार्य करते थे । दाई का पुत्र सुकरात देखने में कुरूप थे । लियोनार्डो डा’विंची का जीवन गरीबी और संघर्षों में बीता । मातृस्नेह से वंचित कन्फ्यूशियस का जीवन भी अभावों में बीता । कार्ल मार्क्स की ‘दास कैपिटल’ पहली बार तो पैसों के अभाव में प्रकाशित नहीं हो पाया था । टोनी मॉरिसन की पहली पुस्तक को प्रकाशकों ने 17 बार ठुकराए थे, पर जैसे ही प्रकाशित हुई, नोबेल प्राइज पायी । मुहम्मद ग़ज़नवी एक ही राजा से 17 बार हारे थे । कबीर और अकबर दोनों ही अनपढ़ थे । नूरजहाँ निर्वासित विदेशी की बेटी थी । शिवाजी के पिता शाहजी भोंसले पहले किसी रियासत के दरबार थे । रेडियम की खोज और अन्यार्थ शोधकर 2 बार नोबेल प्राइज पानेवाली मैडम क्यूरी पहले किसी बड़ी घराने में शिशुपालन का कार्य किया करती थी । बाल गंगाधर तिलक अवैतनिक शिक्षक थे । झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई के पिता मोरोपंत ताँबे, चिन्ना जी अप्पा के दरबार में कुछ रुपये मासिक वेतन पर गुजारा करते थे । आइंस्टीन बचपन में मूर्ख और सुस्त थे, उनके माता-पिता को यह चिंता होने लगी थी कि बड़ा होकर उनका लड़का जिंदगी कैसे गुजार पाएंगे ?
आदरणीय कवि-राजनीतिज्ञ श्रीमान अटल बिहारी वाजपेयी और वैज्ञानिक डॉ. अब्दुल कलाम देश के लिए अविवाहित रह सेवाएं दिए। दोनों भारतरत्न, एक प्रधानमंत्री रहे, तो दूजे राष्ट्रपति। थॉमस अल्वा एडीसन बहरे थे, कवि मिल्टन और सूरदासजी दृष्टिहीन थे…… इसके बावजूद ये सभी लोगों के प्रेरणा हो गए और प्रेरक के रूप में विश्व इतिहास में अमर हो गए । तभी तो कहता हूँ, समय (Time) और सफलता (Success) को पहचानिए, उन्हें सार्थक, सकर्मकरूपेण और ईमानदारी से ‘डील’ कीजिए, क्योंकि वे आपके दास (Servant)) हैं, मालिक (Master/Owner) नहीं !*
[*नोट :- 20वीं सदी के अंतिम दशक में जीवन से निराश हो चुके कथित असफल व्यक्तियों व विद्यार्थियों व परीक्षार्थियों को उत्प्रेरित व उत्साहित करने के उद्देश्य से दिए गए मेरे भाषणांश, जो कि यथासंशोधित है!]