पीएचडी या एमफिल के लिए शोध-प्रबंध कैसे लिखेंगे ?
“देश की सांस्कृतिक-विविधताओं को एकजुट रखने में भारतीय लोकजीवन में रची-बसी सांस्कृतिक-परम्पराओं की साझी विरासत को अक्षुण्ण-संरक्षण प्रदान करना”
●प्रथम अध्याय :-
1. सोद्देश्य प्रस्तावना,
2. विषय-प्रवेश,
3. विषय से संबंधित कार्यों की समीक्षा,
4. प्रस्तुत शोध का औचित्य,
5. प्रतिपादन-प्रणाली,
6. आभार ज्ञापन ।
●द्वितीय अध्याय :-
लोकजीवन : सैद्धांतिक-विवेचन ।
●तृतीय अध्याय :-
लोकजीवन की सांस्कृतिक-परम्पराओं को लोकगाथाओं के माध्यम से जानना ।
●चतुर्थ अध्याय :-
लोकजीवन की स्थिति : सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, राजनीतिक और साहित्यिक ।
●पंचम अध्याय :-
1. ‘लोक’ अवधारणा : उद्भव एवं विकास,
2. अनुसूचित जाति, जनजाति और अति पिछड़ी जाति : व्युत्पत्ति और साहित्य,
3. लोकसाहित्य का विकासक्रम,
4. लोकजीवन के संघर्षों का साहित्य और उनसे निःसृत समाजशास्त्र ।
●षष्ठम अध्याय :-
लोकगाथाओं का विश्लेषणात्मक-अध्ययन : लोक-अवधारणा के आलोक में ।
●सप्तम अध्याय :-
संदर्भित पुस्तकें, पत्रिकायें और साक्षात्कार।
●●प्रथम अध्याय : सोद्देश्य प्रस्तावना (संक्षिप्तकी) :-
क्या लोकसाहित्य ही दलित साहित्य है ? लोकगाथाकार और दलित चिंतक श्री रामश्रेष्ठ दीवाना ने कहा है- ‘हमारी नजर में लोक साहित्य का दूसरा नाम दलित साहित्य है ।’ डॉ. खुशीलाल झा भी अपना दृष्टिकोण इसीतरह स्पष्ट करते हैं- ‘आज के दलित साहित्य तो लोक साहित्य से ही सृजित है ।’
●●प्रथम अध्याय : विषय-प्रवेश (संक्षिप्तकी) :-
भारतवर्ष ने अपनी सांस्कृतिक-विरासत लोकगाथाओं में ही सहेजकर रखी है । आम प्रचलित एवं स्थापित लोकगाथाओं में अगर मूल बिंदु को ढूँढ़ा जाय तो यह स्पष्ट होता है कि दलित वर्ग की संस्कृति ही लोकगाथाओं व लोकजीवन की सांस्कृतिक -परम्पराओं में प्रतिबिंबित है ।
●●प्रथम अध्याय : विषय से सम्बंधित कार्यों की समीक्षा (संक्षिप्तकी) :-
मिथिलांचल के राजा सलहेस दलित जाति ‘दुसाध’ के नायक हैं । सलहेस की प्रेमकथा ‘लोकगाथा’ बनकर आज भी इन जातियों की संस्कृति में प्रतिष्ठापित हैं । ‘कहाँ राजा भोज, कहाँ गंगू तेली’ में गंगू तेली की कथा हो या बाबा बिशू अहीर की कथा… कालांतर में यही तो लोकगाथा बन गए।
●●प्रथम अध्याय : प्रस्तुत शोध का औचित्य (संक्षिप्तकी) :-
लोकनाट्यों /लोकनृत्यों को अगर लोकगाथाओं में सम्मिलित किया जाय, तो सामान्यतः दलित वर्गों के शादी-समारोहों में जाट-जट्टी, सामा-चकेबा, डोमकच इत्यादि लोकनाट्य/लोकनृत्य को व्यवहार में लाकर वे सांस्कृतिक -परम्पराओं को बनाये रखते हैं । लोकगाथाओं के माध्यम से लोकजीवन को मिल रही संरक्षा में भी प्रस्तुत शोध का औचित्य समाहित है ।
●●प्रथम अध्याय : प्रतिपादन-प्रणाली (संक्षिप्तकी) :-
रामकाव्य या कृष्णकाव्य अगर सवर्ण हिंदुओं का अमूल्य निधि है, तो दलित वर्ग के लिए आल्हा-ऊदल, लोरिक-चंदा, सती बिहुला, महुआ घटवारिन इत्यादि गाथाएँ लोक-वर्ग की सांस्कृतिक-परम्पराओं को सहेजकर लोकगाथा हेतु प्रतिपाद्य है ।
●●प्रथम अध्याय : आभार ज्ञापन (संक्षिप्तकी) :-
[सूचनांकन:- प्रस्तुत शोध की पूर्णता के बाद ही आभार ज्ञापित की जाएगी। ]
●●द्वितीय अध्याय : ‘लोकजीवन : सैद्धांतिक-विवेचन’ :-
हिंदी में ‘लोक’ शब्द का आंग्ल शब्द ‘फोक’ [Folk] से नजदीकी संबंध है, जो जर्मन भाषा में इनका पर्याय ‘वोक’ [Vohk] लिए है । हालांकि तत्सम ‘लोक’ शब्द का तद्भव रूप ‘लोग’ है तथा आंग्ल भाषा में इस शब्द का लोकगाथा / लोक-संस्कृति / लोक-साहित्य के अर्थ में प्रथम प्रयोग W J Thomas ने 1846 ई. में किया था । भारत में पं.विष्णु शर्मा रचित ‘पंचतंत्र’ की कथाओं में अनुकरणीय-लोकगाथा ही द्रष्टव्य है , इनमें तीन मूर्ख राजकुमारों को सुनाए जाने वाली कथा ‘दन्तकथा’ की स्थिति लिए है, इसलिए यह गल्प आख्यान के मानिंद है । वहीं लोकसाहित्य को आमलोगों के जीवन का साहित्य कहा ही जा सकता है ।
●●तृतीय अध्याय :-
लोकजीवन की सांस्कृतिक-परम्पराओं को लोकगाथाओं के माध्यम से जानना ।
इनमें मैंने 70 लोकजीवन को चुना है, किन्तु शोध-कार्य आरंभ होते ही कई और लोकजीवन की कथा-व्यथाएँ भी सम्मिलित होंगे । इन लोकजीवनियों में राजा सलहेस, योगी गोपीचंद, सती बिहुला, राजा भरथरी, आल्हा-ऊदल, लोरिक-चंदा, बिशू अहीर, रानी रेशमा-चूहड़मल, चम्पा डाकिन, शोभा धोबिन, जीतन शाह, कारू खिरहर, गंगू तेली, गणिनाथ बैस, बुलाकी गोप, कुमारी परी, बनी गोरैया, शीत-बसंत, रानी सारंगा, कुमर बृजभान, हरचन मोची, नैना जोगिन, हिरनी-बिरनी, महुआ घटवारिन, नैना बंजारा, हर्रि कुम्हार, कौआ हकनी, अनंग कुसमा, गूजर अहीर, घुघली घटमा इत्यादि प्रमुख हैं ।
●●चतुर्थ अध्याय :-
लोकजीवन की स्थिति : सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, राजनीतिक और साहित्यिक विन्यास :-
1.] भारतीय स्वतंत्रता के पूर्व कथित अस्पृश्य व अछूत वर्ग, जो महात्मा गाँधी के द्वारा दिए नाम ‘हरिजन’ से ख्यात हुए, तो डॉ. भीमराव अंबेडकर और भारतीय संविधान के तत्वश: अनुसूचित जाति / जनजाति के हेत्वर्थ विहित हुए, फिर दलित और अब महादलित हो गए । यह सामाजिक स्थिति है ।
2.] सांस्कृतिक स्थिति में नुक्कड़ नाटक, कठपुतली कला से होते हुए लोकनृत्य, लोकनाट्य के विहित लोककला, फिर लोकगाथा तक घटनायें आगे बढ़ती रही !
3.] गाँधी जी के आखिरी लोगों तक पहुंचना अर्थात हमें जाति-पेशाकारों के आलोक में ही दलित वर्ग की आर्थिक स्थिति व ‘संपन्नता का सांख्यिकी महत्त्व’ विचारित करना होगा ।
4.] दलित-राजनीति अब अपरिचित नहीं है । भारत के संदर्भ में दलित डॉ. अम्बेडकर ने भारतीय संविधान की रूपरेखा तय किये थे, तो बाबू जगजीवन राम उपप्रधानमंत्री तक पहुँचे । डॉ. के आर नारायणन और श्री रामनाथ कोविंद राष्ट्रपति बने ।
5.] दलित साहित्य अब समय की माँग बन गयी है । मराठी साहित्य से निःसृत दलित साहित्य हिंदी में भी श्री ओमप्रकाश वाल्मीकि जैसे रचनाकार दिए हैं ।
6.] लोकजीवन तो दलित जीवन से भी काफी विस्तृत है !
●●पंचम अध्याय :-
1. लोक-अवधारणा : उद्भव एवं विकास,
2. अनुसूचित जाति, जनजाति और अति पिछड़ी जाति : व्युत्पत्ति और साहित्य,
3. लोकसाहित्य का विकासक्रम,
4. लोकजीवन के संघर्षों का साहित्य और उनसे निःसृत समाजशास्त्र ।
[सूचनांकन:- पंचम अध्याय में चार बिंदुओं पर चर्चा करेंगे, जो शोध-कार्य आरंभ होने के साथ-साथ इस हेतु गहन अध्ययन शुरू हो जाएंगे । उदाहरणस्वरूप:- ‘लोकजीवन का उद्भव कहाँ से हुआ, उनकी विकास-यात्रा में पड़ाव और अड़चन कहाँ और कैसे आये ? Down Trodden हो या Depressed Class… ये आये कहाँ से ? तो लोक -साहित्य के बाद उनका समाजशास्त्र पर भी ध्यान देंगे । ‘गोदान’ की सिलिया देवी और पंडित मातादीन प्रसंग से लेकर बिहार में नक्सल आंदोलन और रणवीर सेना प्रसंग की चर्चा भी इस ‘समाजशास्त्र’ के विहित ही होंगे । ]
●●षष्ठम अध्याय :-
‘लोकगाथाओं का विश्लेषणात्मक-अध्ययन : लोकजीवन व दलित-अवधारणा के आलोक में
प्रस्तुत शोधक अंतर्गत सिर्फ़ संवैधानिक SC व ST वर्ग ही नहीं, पसमांदा मुसलमान से लेकर हिंदुओं में पिछड़ा वर्ग व Backward Classes भी आएंगे, क्योंकि लोकगाथाएँ इनके भी तत्वश: स्थापित हैं । तो इन सबसे से परे गोनू झा की कथा, बीरबल और तेनाली रामन के हास्य-बलिहारी से लेकर अलिफ़ लैला, अली बाबा चालीस चोर लिए ‘अरेबियन नाइट्स’ लोकगाथा नहीं है, अपितु रोमांचक कथा के रूप में जरूर चर्चित रहे हैं ।
षष्ठम अध्याय मूलतः प्रस्तुत शोध-कार्य का निष्कर्ष है, जो शोधारम्भ के साथ ही अस्तित्व में आ सकेगा ।
●●सप्तम अध्याय : ‘संदर्भित पुस्तकें, पत्रिकायें और साक्षात्कार’
सप्तम अध्याय में प्रस्तुत शोध-कार्य में आये सभी संदर्भ-ग्रंथों, पत्र-पत्रिकाओं, पत्रवार्त्ताओं तथा संबंधित साक्षात्कार को रखेंगे । जो कि शोध-सम्पन्न पर ही संभव हो सकेगा ।
[सूचनांकन:- इसी भाँति शोध-कार्य के आगे बढ़ने के साथ-साथ ही सभी अध्यायों में श्रमसाध्य तथ्य जुटाए जाएंगे । इसप्रकार अभी तो यह रूपरेखा भर है।]