गीतिका
गिरी हूँ तो उठूंगी यह ठान रखा है,
हारी हूँ तो जीतूंगी यह मान रखा है।
परवाह नहीं करती इस दुनिया की,
इसे बड़े ही करीब से जान रखा है।
कोई किसी का नहीं सब स्वार्थी हैं,
किसने रिश्तों का ध्यान रखा है।
धन दौलत ही सब कुछ हो गयी है,
अमीर ने कब गरीब मेहमान रखा है।
होशियारी नहीं आती थी मुझको,
व्यवहार से लोगों ने दे ज्ञान रखा है।
कमजोर समझते हैं जमाने वाले,
क्योंकि बचाकर स्वाभिमान रखा है।
“सुलक्षणा” भरती है उड़ान गगन में,
पर उसने त्याग अभिमान रखा है।
भूली नहीं अपना अतीत कभी भी,
बरकरार खुद का सम्मान रखा है।
— डॉ सुलक्षणा