हास्य व्यंग्य

आलेख ….हालात ए हाजरा कहो या मंजरकशी…….

यहां लॉक डॉन क्या लगा पूरा लोक ही सन्नाटों से भर आया है । लोक की सारी भागदौड़ सिमट सी गई है सब कुछ रुका रुका थमा थमा ।आदमी घरों के अंदर इस तरह कैद है मानो पिंजरे में पंछी । और परिंदे फिर पेड़ों पर चहचहाने लगे हैं। कुछ जानवर तो जंगल छोड़कर बस्तियों में ऐसे घूमने लगे हैं मानो उनके पुरखों का जंगल फिर उनके हाथ आ गया हो ।उधर मुफ्त के सलाहकारों की बाढ़ सी आ गई है । सबके पास देने के लिए अलग-अलग मशवरे हैं अलग-अलग तर्क हैं । यह नहीं होता तो वह होता ….। वह नहीं होता तो यह होता…। बगैरा बगैरा….।
कुछ सलाहकार तो यहां तक मानते हैं कि सरकार ने उनकी सलाह ली होती तो शायद लॉक डॉउन की जरूरत ही नहीं पड़ती । वे इस सारी समस्या का समाधान चुटकियों में कर देते  । परंतु सरकार ने उनकी इस तीक्ष्ण बुद्धि का इस्तेमाल ही नहीं किया तो बेचारे क्या करें ? शुक्र है जुकर बर्ग का जिसने फेसबुक जैसा माध्यम दिया है अपनी भड़ास निकालने को । इसलिए वे बेचारे अपनी भड़ास फेसबुक पर लिखकर ही निकाल लेते हैं ।
 कुछ लोग तो इतनी हिमाकत पर उतर आते हैं कि समुद्र में पेशाब करने से भी गुरेज नहीं करते। इसे वे अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझते हैं ।जबकि उन्हें यह भी पता है कि उनके समुद्र में पेशाब करने से समुद्र कभी गंदा नहीं हो पाएगा । फिर भी वे पूरी निष्ठाएवं प्रतिबद्धता के साथ अपने काम में डटे हुए हैं  और इस काम को करते हुए गौरव का अनुभव भी करते हैं ,और फूले भी नहीं समाते हैं ।
कुछ का तो यहां तक मानना है कि यह भीषण त्रासदी सरकार के लिए है , उनके लिए नहीं । इसलिए उन्हें अपनी जान भी सरकारी जान लगती है । इसलिए वे कर्फ्यू तोड़कर बार-बार बाहर जाना अपनी शान समझते हैं । वे ये  जानना चाहते हैं कि उनकी सरकारी जान की सरकार कितनी हिफाजत करती है , सरकार को उनकी जान की कितनी चिंता है और जब सरकार उनकी जान की  हिफाज़त का नमूना देकर वापिस भेजती है तो वे….फिर सरकार को भला बुरा कहते नहीं थकते ।
कुछ  सिरफिरे  एक दूसरे समुदाय को गालियां बककर हीरो बनने की फिराक में जुटे हुए हैं ।  परंतु किसी को गालियां बक कर आज तक कौन हीरो बन पाया है । आखिर वे विलेन ही साबित हो जाते हैं और फिर उन्हें अपना मुंह छुपा कर लोक में जीना पड़ रहा है ।
 सदियां गवाह  हैं जिस गंगा-जमुनी तहजीब की अमृतधारा को सदियां नहीं सुखा पाई तो ये कुकुरमुत्ते क्या सुखा पाएंगे ? सदियां इस बात की साक्षी रही है इस गंगा जमुनी तहजीब की । इसअमृतधारा ने ऐसे कितने ही विलेन  कूड़े की तरह उठाकर कूड़े के ढेर पर फेंके हैं जो नफरत के बूते हीरो बनने की फिराक में रहे हैं । कुछ तस्वीरें जरूर विचलित करती हैं जिन्हें देखकर आंखों में आंसुओं की बूंदें उभर आती हैं ….।।
राजनीति में हर एक शब्द का अपना अलग मुकाम होता है , अलग  अर्थ होता है ।राजनीति में “लेकिन” शब्द आम प्रचलित है जो अधिकतर विपक्ष द्वारा इस्तेमाल किया जाता है । खासकर किसी भी वाक्य के अंत में लेकिन …शब्द राजनीति में यूं भी जरूरी है । वरना “सर्वसम्मति” शब्द हावी हो जाता है इसलिए हर एक बयान के बाद में “लेकिन” शब्द इस्तेमाल हो ही जाता है । इस बार लॉक डॉन में विपक्ष ने सत्ता के साथ खड़े होते हुए भी “लेकिन ” शब्द का प्रयोग हर एक ब्यान  में करके अपनी अहम भूमिका निभाई ।
परंतु “लेकिन”का ब्लूप्रिंट क्या हो सकता है यह नहीं दे पाया। ताकि इस भीषण त्रासदी के समय में उनकी सक्रिय सहयोगात्मक भागीदारी ऐतिहासिक हो जाती । यूं तो भागीदारी ऐतिहासिक ही है परंतु सर्जनात्मकता के अभाव में उसे सवर्ण अक्षरों में लिखा जाए यह तय नहीं है । सारे स्वर्णाक्षर उनकी झोली में आ गए जिन्होंने अपने नन्हे नन्हे हाथों से अपने छोटे-छोटे गुल्लक तोड़कर सारे पैसे पुलिस के हाथों में रख दिए देश को देने के लिए । और मीडिया ने यह सब जब देश को दिखाया तो न जाने यह हाथ कितनों के ही प्रेरणा स्रोत बन गए ।
कहते हैं गांव सिकुड़ता है तो शहर फैलता है और जब शहर फैलता है तो गांव की ओर जाता है ।
शहर की गोद में बैठा गांव उस दिन दिल्ली के आनंद विहार में देखा तो…
शहर ने गांव को इस तरह भगाया मानो अब शहर के भीतर गांव का कोई काम न रहा हो हमने सुना उनका बिजली पानी काट दिया गया सच कुछ भी हो परंतु था बड़ा डरावना और मर्मांतक दृश्य यह
पलों में गांव के कितने ही सपने शहर की चौखट पर ध्वस्त होते देखे गए तो आंखों में नमकीन पानी की बूंदें तिर आईं।
 सारे गांव अपनी गृहस्थी सिर पर लादे भूखे प्यासे फिर लौट चले थे ।अपनी जमीन ने उन्हें फिर बुला लिया हो अपनी गोद मैं सिर रखकर रोने के लिए मां की तरह । बेशक अफवाहों का बाजार गर्म था परंतु उन्हें रोकने वाला कोई नहीं था ।बड़ी-बड़ी अट्टालिकाएं  गुमसुम मूक होकर इनकी मुफलिसी पर नजरें गड़ाए देखे जा रही थीं । और यह धरती के देवता इन्हें रचने वाले स्वयं बेघर होकर कितने असहाय थे । इतिहास इनकी बेबसी जरूर अपनी पंजिका में दर्ज करेगा ।
मुंबई के मालेगांव में भी इस तरह के दृश्यों ने जरूर विचलित किया ।
पत्थरबाज और थूक थू  प्राणी  थैंक्यू के बदले जब थू थू करते दिखे और पत्थर फैंकते तो पीड़ा हुई और भीतर से आत्मा ने कहा इन बिगड़े हुए लोगों को अपने हाल पर क्यों नहीं छोड़ दिया जाता । पर यह तर्क नहीं  था ,महज भावुकता थी ।  इस दौरान देश ने तालियां भी बजाई और थालियां भी और कुछ लोगों को प्रधानमंत्री की यह बात समझ नहीं आई तो उन्होंने जी भर कर गाल भी बजाए और गालियां भी ।खैर यह सब इस दौर का ही तो कमाल है ।लोकतंत्र में अभिव्यक्ति का अधिकार है न सबको ।
कुछ सितारे टूटकर विदा हुए तो जमाना रोया । अपने परिजनों के अंतिम दर्शन भी ना कर पाने की पीड़ा सदैव उन सीनों में कील की तरह चुभती रहेगी जो इस कठिन समय में  मिलने कीआखिरी हसरत भी पूरी न कर पाए ।पूरी दुनिया के दरवाजे जैसे बंद हो गए हैं । किसी ने एक बड़ा ताला जैसे दुनिया के दरवाजे पर लगा दिया हो ।चारों ओर  सन्नाटा  और  अंधेरा …।पर आस का दीपक फिर भी इस तरह अंधेरे पर जगमगाता रहा और जतलाता रहा कि   अंधेरा नित नहीं रहता ….सुबह जरूर आएगी । और जीत जरूर होगी ….।भयानक अंधेरे के खिलाफ रोशनी अवश्य जीत जाएगी ।
इस दौर में साहित्य ने भी खूब बाजी मारी । कच्चा पक्का खूब रचा गया । साहित्य के प्रचार प्रसार में फेसबुक और व्हाट्सएप ने अपनी अहम भूमिका निभाई इसलिए  जुकर वर्ग को भी धन्यवाद देना जरूरी बनता  है , सबके लिए प्लेटफॉर्म उपलब्ध करवाने के लिए ।
 दूसरे चरण के आखिरी दिन आज तक संक्रमण का आंकड़ा  चालीस हजार के आसपास आ पहुंचा है परंतु उम्मीद की किरण  यह भी है कि दस हजार से ऊपर लोगों ने जीत भी दर्ज की है ,जो कोरोना को हराकर घर लौट आए हैं ।करीब बारह सौ लोग जो घर नहीं लौटे  उनके लिए हम सब श्रद्धा सुमन ही अर्पित कर सकते हैं ।
  कोरोना-योद्धाओं को कभी यह एहसास न हो कि वे अकेले हैं । देश का नैतिक दायित्व है की उन पर फूल भी बरसाए और सीने से भी लगाए ।उनके पावों में कांटा चुभने की पीड़ा को भी देश महसूस करें , उनके सुख की सदैव दुआ करे ।।
 कल से लॉक डॉन का तीसरा चरण शुरू हो रहा है यह चौदह दिन और गृहवास के हैं ।भगवान राम ने तो राक्षसों का संहार करने के लिए चौदह साल बनवास में काटे थे । हमने तो सिर्फ चौदह दिन गृहवास के काटने हैं ।आओ खुशी से ये चौदह दिन गृहवास के और  काट लें ताकि यह कोरोना राक्षस हारकर भाग जाए…।।
……..****इस मंज़रकशी की कुछ दिलचस्प बातें फिर तीसरे चरण के बाद ****।।
                                                    अशोक दर्द
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अशोक दर्द

जन्म –तिथि - 23- 04 – 1966 माता- श्रीमती रोशनी पिता --- श्री भगत राम पत्नी –श्रीमती आशा [गृहिणी ] संतान -- पुत्री डा. शबनम ठाकुर ,पुत्र इंजि. शुभम ठाकुर शिक्षा – शास्त्री , प्रभाकर ,जे बी टी ,एम ए [हिंदी ] बी एड भाषा ज्ञान --- हिंदी ,अंग्रेजी ,संस्कृत व्यवसाय – राजकीय वरिष्ठ माध्यमिक विद्यालय में हिंदी अध्यापक जन्म-स्थान-गावं घट्ट (टप्पर) डा. शेरपुर ,तहसील डलहौज़ी जिला चम्बा (हि.प्र ] लेखन विधाएं –कविता , कहानी , व लघुकथा प्रकाशित कृतियाँ – अंजुरी भर शब्द [कविता संग्रह ] व लगभग बीस राष्ट्रिय काव्य संग्रहों में कविता लेखन | सम्पादन --- मेरे पहाड़ में [कविता संग्रह ] विद्यालय की पत्रिका बुरांस में सम्पादन सहयोग | प्रसारण ----दूरदर्शन शिमला व आकाशवाणी शिमला व धर्मशाला से रचना प्रसारण | सम्मान----- हिमाचल प्रदेश राज्य पत्रकार महासंघ द्वारा आयोजित अखिल भारतीय कविता प्रतियोगिता में प्रथम स्थान प्राप्त करने के लिए पुरस्कृत , हिमाचल प्रदेश सिमौर कला संगम द्वारा लोक साहित्य के लिए आचार्य विशिष्ठ पुरस्कार २०१४ , सामाजिक आक्रोश द्वारा आयोजित लघुकथा प्रतियोगिता में देशभक्ति लघुकथा को द्वितीय पुरस्कार | इनके आलावा कई साहित्यिक संस्थाओं द्वारा सम्मानित | अन्य ---इरावती साहित्य एवं कला मंच बनीखेत का अध्यक्ष [मंच के द्वारा कई अन्तर्राज्यीय सम्मेलनों का आयोजन | सम्प्रति पता –अशोक ‘दर्द’ प्रवास कुटीर,गावं व डाकघर-बनीखेत तह. डलहौज़ी जि. चम्बा स्थायी पता ----गाँव घट्ट डाकघर बनीखेत जिला चंबा [हिमाचल प्रदेश ] मो .09418248262 , ई मेल --- [email protected]