कविता

वो…. नाचती थी

वो….. नाचती थी ?

जीवन की,
हकीकत से ,
अनजान।
अपनी लय में,
अपनी ताल में,
हर बात से अनजान ।

वो…… नाचती थी ?
सोचती………. थी?

नाचना ही….. जिंदगी है ।
गीत- लय- ताल ही बंदगी है।

नाचना…….. ही जिंदगी है ।
नहीं …….. शायद
नाचना ही…. जिंदगी नहीं है ।

इंसान हालात से नाच सकता है।
मजबूरियों की ,
लंबी कतार पे नाच सकता है।

लेकिन ………..
अपने लिए ,
अपनी खुशी से नाचना।
जिंदगी में यहीं,
संभव -सा नहीं।

हकीकतें दिखी……
पाव थम गए।

फिर कभी सबकी आंखों से,
ओझल हो ……
नाचती अपने लिए।

लेकिन जिम्मेदारियों से ,
वह भी बंध गए।

फिर गीत -लय -ताल,
न जाने कहां थम गए ।

पांव रुके,
और हाथ चल दिए।
शब्द नाचने लगे।
जीवन की,
हकीक़तों को मापने लगे।

उन रुके पांवों को ,
आज भी बुलाते हैं ।
तुम थमें हो ,
नाचना भूले तो नहीं ।

वो…..नाचती थी।
कभी हकीकतों से परे,
आज ……भी नाचती है ।
हकीकतों के तले ।।

— प्रीति शर्मा “असीम”

प्रीति शर्मा असीम

नालागढ़ ,हिमाचल प्रदेश Email- [email protected]