कविता

गंगा घाट

गंगा तेरा घाट

युगों- युगों से यात्रा मेरी,
तेरे साथ- साथ चलती रही।

जन्मों -जन्मों से गुजर कर ,
तुम पर ही तो आ के थमती रही।

जिंदगी के एक घाट से,
मौत के,
दूसरे घाट तक का सफर।

युगों- युगों से ना बदला है।
ना बदलेगा ।
जन्मों- जन्मों का यह सफर।

देखता हूँ……. तेरे घाट पर ,

जीवन का अनूठा ही फन।

मां की गोद में रुधन से भरा ।
नन्हीं किलकारी का स्वप्न ।

वो ममता ,
वो प्यार और स्नेह का अंबार।

जिंदगी के ,
स्वर्णित पलों का आभास ।

घुटनों के बल चलते,
सपनों की रंग -बिरंगी,
तितलियों को पकड़ने को,

मचलते मन की फुहार ।

कभी रुठ जाते, जिद्द करते,
फिर मान जाने के ढंग।

चिंताओं से मुक्त ,
हवा के झोंके से मुक्त ,
बहते जीवन के पल ।।

फिर समय की लहरों में ,
बचपन खो जाता है ।

पांव दबा के रेत के ,
घर बनाते भोले बचपन को,

जवानी की दहलीज पर ,
महल बनाने का स्वप्न सताता है।

फिर होड़ की ,
एक दौड़ शुरु होती है ।

इंसान सब पा जाना चाहता है।

हर रंग में खेलकर,
हर रस पी जाना चाहता है।

तब सब पा लेने की,
अमिट लालसा पाता है।

विषयों की लपटें,
दिन-रात दुगनी होती हैं।

इंसान ,
दूसरों को सीढ़ी बना।
अपने मतलब साधता है ।

विषयों का बोझ ढोते हुए।
पैसा कमाने की होड़ में ,
दिन-रात खोता है ।

अपना- पराया सब भूलता है।
धन की हवस में,
भोला बचपन तो….. क्या
बुढ़ापा भी आएगा यह भूलता है।

बस अपने लिए ,
अपनों के लिए जीता है ।
दूसरों को मारता- काटता है।

सच- झूठ के ,
कितने ही खेल खेलता है।

इस दौड़ में कब ,
जवानी बुढ़ापे में बदल गई ।
पता ही नहीं चलता है।

तब अपने किए कृत्यों का,
हिसाब नजर आता है।

वो अपनी जिन्हें अपना,
समझने का ,
भ्रम पाले बैठा था।
कोई अपना नहीं,
सारे अपने हैं।
यह एहसास जब आता है।

अपनी ही दुनिया बसा,
दुनिया बनाने वाले को
कब से भूले बैठा था ।

जब याद……… आता है ।
दूसरे ही पल सब छूट जाता है।

भीतर की ,
आत्मा जब जागती है।
बाहर की ,
आंख- कान- सांस
बंद हो जाते हैं।

जीवन के इस घाट पर,
रंगे सपने दूसरे घाट पर ,
खुद को ,
सफेद धुंध को ओढ़े हुए पाते हैं।

कितना भी ऊंचा उठ जाएं ,
खुद को धरा पर ही पाते हैं।

सब अपने -सब सपने ,
उस घाट पर रह जाते हैं।

फिर इस घाट से,
उस घाट का,
सफर कब खत्म हो गया ।

पिछले घाट पर,
छूटा सपनों का महल ।
अंतिम स्नान से ही धुल गया।

रिश्ते -नाते ,प्यार ,कड़वाहट,
यादें -बातें सब दिन ।
आग में हवन हो जाते हैं।

दूसरे घाट पर,
राख के ढेर के बादल उड़कर।

तेरे ही प्रवाह में ,
प्रवाहित हो जाते हैं ।

फिर उसी से ,
नवजीवन का प्रवाह पाते हैं।

युगों- युगों से तुम्हारे घाट ,
जन्मों-जन्मों के ,
जीवन मरण की ,
अमृत कथा सुनाते हैं।

— प्रीति शर्मा “असीम”

प्रीति शर्मा असीम

नालागढ़ ,हिमाचल प्रदेश Email- aditichinu80@gmail.com