सदानंद पॉल की 7 चिंतनशील कविताएँ
1.
●● माँ का अर्थ
माँ मतलब
कुंती भी,
मरियम भी,
द्रोपदी-गांधारी भी,
कैकेयी भी,
पुतली भी,
कमला कौल भी,
हीराबेन भी,
चंबल के डकैतों की माँ भी,
मंथरा की माँ भी,
फूलन देवी की माँ भी,
या राष्ट्रमाता भी,
मदर टेरेसा भी,
तो फाँसी पर चढ़ गए
हत्यारे/अपराधी/रेपिस्ट या etc की माँ भी,
जैविक माँ यानी
चाहे विवाहित हो या लिव इन या अविवाहित माँ हो,
या पिल्ले की माँ भी,
माँ मतलब
आदरणीया होती हैं, श्रद्धेया होती हैं !
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2.
●● वज्रपात बनाम पुष्पपात
देश के अखबारों ने खबर छापी-
‘कोरोना वारियर्स पर सुरक्षाप्रहरियों ने
विमान से पुष्प बरसाए ।’
जबकि विपक्ष समर्थित एक अखबार ने खबर यह छापी-
‘रात में इंद्र ने खूब जल और बिजली बरसाए
क्वारंटाइन और लॉकडाउन में
रह रहे लोग सोते रहे
पर तेज बारिश से फसल बर्बाद हो गए
और किसानों, मवेशियों पर
बिजली गिरने से
वो काल के गाल में समा गए !’
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3.
●● विज़न 2020
भारत को विकसित
और शक्तिशाली राष्ट्रों की
लिस्ट में लाने के लिए
डॉ. कलाम साहब ने
विज़न 2020 का मंत्र दिए थे
और ‘कट ऑफ ईयर’ तय किये थे !
लेकिन 2020 के सिरफ
दो माह बीतते ही
ऐसा विकास हुआ
कि दुनिया थम गई
और भारत में लोग
घर में घुस गए !
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4.
●● असली मेधावी
हम चोर नहीं, मजदूर हैं
हमारे बच्चे इसलिए कूड़े बीनते
कि पूँजीपति श्रीमान इसे फैलाते हैं
इसे मत फैलाओ, न कूड़े बीनेंगे
हमारे बच्चे भी मेधावी है
उन्हें भी सिटी मांटेसरी में भेजकर देखो
तुम्हारे बच्चे से आगे निकल जाएंगे
भले ही फटेहाल में ढके हैं हमारी काया
पर किसी ऊपरवाले की माया लिए नहीं,
है यह तुम जैसे पूँजीपतियों की माया
हमें दयाभाव नहीं चाहिए
स्वाभिमानी हैं हम
हमें सिर्फ काम चाहिए
और उनके दाम चाहिए
कोई बेगारी या जोर-जुल्म नहीं
हमें भी चाहिए ताजी हवा, शुद्ध जल
और एक छोटा ही हो घर
एक मुन्ना, एक चुन्नी और उनकी बेबे भी
सम्मान भी, साईं इतना दीजिए भी,
कबीर और मार्क्स के दर्शन भी
हाँ, जीने दो इच्छानुरूप हमें
हम चोर नहीं, मजदूर हैं
मजदूर भी नहीं,
सिर्फ श्रमशक्ति हैं !
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5.
●● काँच की आँख
मानव की आँख के बदले अगर काँच की लगाएंगे;
तो वो आँख होगी, पर देख नहीं पाएंगे.
कि आदमी के कलेजे के बदले वहाँ,
किसी भी धर्म के पूजास्थलों के प्रतीक लगाएंगे;
तो आदमी क्या जिंदा रह पाएंगे ?
जिसतरह सूर्य का धर्म है- ताप देना, भाप देना.
चंद्रमा का धर्म है- शीतलता देना, ऊष्मा से राहत देना.
धरती का धर्म- अन्न देना, शांत मन देना.
काश ! मानव भी समझते कि मानव का धर्म है-
दुःखी मानवों की सेवा ही करना, कर्मयोगियों की मेवा नहीं छीनना.
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6.
●● भाग्य-विधाता
सिर्फ स्नेह लिए शब्द नहीं चाहिए,
क्योंकि इससे पेट नहीं भरते.
आजतक, अलजजीरा, रवीशों को कैसे सुनूँ,
क्योंकि सिर्फ रेडियो ही पास है.
पेट और रेडियो ने मिलकर
रामायण, महाभारत को हमसे दूर कर दिए !
अखबारों ने दगा दिए,
तो नागार्जुन जैसों ने अकाल के बाद कविता रच दिए !
अब तो हमारे पास देने को सचमुच में कुछ नहीं हैं
लेने को मन करता है,
पर स्वाभिमान धमकाते हैं पल-पल
सरकार सिर्फ कामातुर स्त्री की भाँति है,
जो फँसाना जानती है !
तो फिर हमें एक स्लेट-खड़िया दे दो,
ताकि स्वयं भाग्य लिखूँ और मिटाते जाऊँ !
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7.
●● 21वीं सदी में पूर्ण विराम
ये अहंकार शब्द
और अहंकारी लोग
सनकी और ज़िद्दी क्यों होते हैं ?
तभी तो हम शून्य के आविष्कार के बाद
खोज के नाम पर अबतक शून्य पर ही अटके हैं !
त्रेता में खर-दूषण थे,
पर अब तो यहाँ सिर्फ व सिर्फ प्रदूषण है,
हवा-पानी भी फ्री में नहीं
और बह रही यहाँ प्लास्टिक की नदी है,
यह करप्टयुग है,
तेरे-मेरे सपने का 21वीं सदी नहीं !
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