गोरेपन की क्रीम का विज्ञापन (लघुकथा)
“भारत के एक महत्वपूर्ण साप्ताहिक पत्रिका ने स्वयं की पत्रिका में एक विज्ञापन देकर खुद को ‘सच कहा, सम्मान मिला’ स्लोगन लिख 71.59 लाख पाठक संख्या बताया है। दूसरी ओर इसी अंक के अंतिम व चौथे आवरण पृष्ठ पर ‘गोरेपन की क्रीम’ का विज्ञापन छापा है । यह रंगभेद करना नहीं है, तो क्या है? यह अक्षम्य अपराध है । मेरे जैसे कुरूप पाठक के लिए यह असहज स्थिति है। यह उस साप्ताहिक पत्रिका की असभ्य स्थिति है। अगर ‘सच कहा, सम्मान मिला’ में थोड़ा भी दम व साहस है, तो मेरे पत्र को पत्रिका की ‘आपकी बात’ में अवश्य प्रकाशित करेंगे ! हाँ, पैसे के कारण इतने करप्ट न हो जाइए ! ऐसे विज्ञापनों से बचिए, संपादक और प्रकाशक महोदय !”
परंतु मेरे द्वारा प्रेषित यह पत्र प्रकाशित नहीं हुई । उस पत्रिका के संपादकीय व प्रकाशक मंडल में सच सुनने का साहस किसी भी कोने में नहीं थी !
पत्र लिखने के कुछ ही दिनों के बाद बिहार के कटिहार जिले के अमदाबाद प्रखंड के एक गाँव में भयंकर आग लगी, 65 घर जलकर राख हो गई ! यह भले ही ‘सावधानी हटी, दुर्घटना घटी’ के तत्वश: रही, तथापि आग लगी तो ! लाखों की संपत्ति स्वाहा हुई तो ! अग्निपीड़ितों को स्थानीय प्रशासन द्वारा सहायता दी गई । …..परंतु उनकी क्या जो विवाहयोग्य युवतियाँ जलकर व आग से झुलसकर अपनी कथित सुंदरता खोई ! गोरे रंग खोई ! समाज उन्हें कुरूप समझने लगे हैं, काली समझने लगे हैं । उसे कौन से ‘गोरेपन की क्रीम’ उनकी कथित गोरे रंग और कथित सुंदरता को वापस ला पाएंगी ? वहीं अग्निपीड़ित मवेशियों की सुंदरता वापस होने से रही !