लघुकथा – राष्ट्रीय कवि
यूँ तो कवितापुरम् शहर पुराने समय से साहित्यकारों की भूमि रहा है वर्तमान में भी चार-छ कवि देश में अपनी पहचान बनायें हुए हैं । यद्यपि नयी संतति का रुझान साहित्य के प्रति कुछ कम ही है पर एक नवयुवक मोन्टी को भी कविता लिखने के संस्कार जागे और वह भी आजकल कविता लिखने लगा। धीरे-धीरे उसकी काव्य-सुगंध फैलने लगी । एक दिन अचानक दैनिक अखबार में उसकी कविता प्रकाशित हुई जिसमें मोन्टी को राष्ट्रीय कवि दर्शाया हुआ था । अखबार के साथ-साथ ये खबर भी शहर के घर-घर में पहुँच गई । जैसे ही स्थापित रचनाकारों ने मोन्टी की कविता को पढ़ा और देखा कि उसे राष्ट्रीय कवि भी बताया गया है ये बात उन सबको पची नहीं । पहले तो आपस में फोन पर बात करके कविता व कवि का उपहास किया फिर अखबार को भला-बुरा कहा । बात यहाँ ही नहीं रुकी वरन सभी मोन्टी को बधाई देने की बजाय, उसे कोसने लगे और कहने लगे – अरे, कल के छोकरे , तू कब से राष्ट्रीय-कवि बन गया ? जानता भी है ‘राष्ट्रीय-कवि’ का मतलब क्या होता है ? बेचारा मोंटी सुनता रहा, क्या कहता ?
सुनते-सुनते, आखिर मोंटी के सब्र का बांध फूट गया और उसने कहा- सम्मानित कविगणों ! मेरी कविताओं में हमेशा राष्ट्र-चिंतन निहित रहता है, मेरी लेखनी सदैव राष्ट्र-देव की आराधना के गीत लिखती रहती है । क्या, ये योग्यता कम है ‘राष्ट्रीय’ कहलाने के लिए । यद्यपि मेरी रचनाएँ देश के कोने-कोने तक नहीं पहुँच पाई होगी पर उनके भाव तो संपूर्ण देश के लिए होते ही हैं साथ ही प्रत्येक कवि राष्ट्र की धरोहर भी होता ही है, अब आप सब बताएं, क्या मैं राष्ट्रीय नहीं हूँ, अराष्ट्रीय हूँ । युवा कवि मोंटी के विचारों को सुनकर सभी स्थापित रचनाकार, बारी बारी से फोन काटते चले गये…