बदल रही है साथ समय के
गाँव की बेटी
बड़ी भोली, बड़ी नादान
दुनिया से नहीँ है अब अंजान
गाँव की बेटी !
लीपती थी चूल्हा कभी जो
आज जिंदगी के रंग उकेर रही है
कैनवास पर…
गाँव की बेटी !
घर के आँगन की दहलीज पर
बना रही है खुशियों की रंगोली
गाँव की बेटी !
ओढ़नी और घूंघट की
चार दीवारी से आजाद हो
उजियारा शिक्षा का फैला रही है…
गाँव की बेटी !
मेहन्दी वालो हाथों मॆं बंदूक उठा
बनी है देश की प्रहरी…
गाँव की बेटी !
है विषैली हवाओं से मगर अंजान
गाँव की बेटी !
रखती है फूँक-फूँक कर एक-एक कदम
बना रही स्वयं अपनी पहचान
गाँव की बेटी !
— सविता वर्मा “ग़ज़ल”