तथ्यों को प्रतिबिम्बित करती 10 कविताएँ
1.
●बाबूजी का थैला
होश सँभालने से अबतक,
थैले ढो रहे हैं बाबूजी;
बचपन में स्लेट व पोथी लिए
थैले ढोये थे बाबूजी;
कुछ बड़े हुए, तो उसी थैले में
टिकोले चुनते थे बाबूजी;
उमर बढ़े, उसी थैले में मिट्टी खिलौने भर
बेचने, मेले जाते थे बाबूजी;
कुम्हारगिरी से गुजारे नहीं, तो दर्ज़ीगिरी लिए
उसी थैले में कपड़े लाते थे बाबूजी;
फिर टेलीफून भरकर उसी थैले में ले
खंभे निहारते थे बाबूजी;
गार्ड बन उसी थैले में
घर के लिए सौगात लाते थे बाबूजी;
पचास साल तक उसी थैले में
चिट्ठियाँ ढोते रहे बाबूजी;
उसी थैले में खुद के और मेरे भाई-बहनों लिए
लाई-मिठाई लाते रहे बाबूजी;
रिटायर हुए फिर भी, रफ़ू कर-कर उसी थैले में
रोज सब्जी ढो रहे बाबूजी;
इस थैले के चक्कर में
माँ को सिनेमा, कभी दिखा नहीं पाए बाबूजी;
इस थैले के चक्कर में
कहीं घूम-फिर नहीं सके बाबूजी;
पर इस थैले ने हम चारों को
जीने का सही सपने दिए हैं बाबूजी;
अब घुटने दरद के बाद भी
थैले ढोते हैं बाबूजी;
सत्तर पार तो कब के हुए,
थैले को, तकिये नीचे रख सोते बाबूजी;
उस थैले को शत-शत नमन…
कि शतायु के हों, मेरे प्यारे बाबूजी।
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2.
●सिम्पलीसिटी
ऐसे बहुत सारे लोग हैं,
जो सफल और संपन्न होकर भी सिम्पलीसिटी में जीते हैं ।
यह तो बड़प्पन है ।
…किन्तु कम्युनिस्ट न सम्पन्न हुआ चाहते हैं, न सफल !
वह सिम्पलीसिटी में ही रहना चाहता है,
जो कि गरीबी के फलस्वरूप है !
अगर क्षमता है, तो हम गरीब क्यों रहें
और गरीबी में क्यों जीये?
कहने का मकसद है,
सम्पन्नता पाकर अगर हम सिम्पलीसिटी में रहे,
तो यह हमारी महानता है,
अन्यथा सम्पन्नता का डींग हाँकना
हमारे अभिमान का सूचक है,
जो कालांतर में
दुर्बल पक्ष के रूप में अभिहित है।
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3.
●अनगिनत !
शादी के
कुछ माह बाद ही
एक नवविवाहित दोस्त
से
ठिठोली किया-
वे दिन-रात में कितनीबार सेक्स करती हैं?
उन्होंने त्वरित जवाब दिए-
अनगिनत !
….और माता-पिता की सेवा
इस प्रश्न पर वे
झेंप गए !
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4.
●सच्चा नेता
मुज़फ़्फ़रपुर के मृतक बच्चे
और
पुणे में दीवार गिरने से मरे
कटिहार के दर्जनभर लोग….
पर
तुम
सचमुच नेता हो, यार !
शिमला में घूम रहे हो,
बीवी के साथ
ठंढ का लुत्फ़ उठा रहे हो !
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5.
●आसाराम !
बचपन में रामू से
सबकोई आशा रखते थे
क्योंकि
वे ट्रेन से गिरे कोयले बीनते थे,
बाद में चोरी भी करने लगे !
लोगों को मिल-बैठ
हिस्से देते थे,
बावजूद
कभी कोयले की कालिख
देह में नहीं लगी !
पर वो
जैसे ही धर्मगुरु बने
उनकी कमाई बढ़ी,
रंगीनी बढ़ी
और
लोगों की कमाई खत्म हुई,
जो
रामू द्वारा
लोगों की आशाओं पर चोट था !
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6.
●मनभेद
लोग साथ काम करते हैं,
स्वाभाविक है ‘मतभेद’ होगा ही!
इनमें से कोई कॉलीग
अगर
नौकरी संबंधी या किसी आफ़त में फंस जाते हैं,
तो कुछ सहकर्मी को उसके प्रति सहानुभूति नहीं होती है,
उल्टे उसे मज़ा आता है !
ऐसे स्वार्थी सहकर्मी से दूर होना
माँगता
या नहीं !
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7.
●रईश जावेद
मित्रता को इतनी सीमित
क्यों करते हो तुम ?
…और ये जन्मदिवस पर
इसतरह के शब्द
मेरे लिए तुम्हारे द्वारा अगाध प्रेम की निशानी है !
कटिहार के MP बनो, ऐसा सोच रहा हूँ !
तुम तो मेरे लंगोटिया साथी हो ।
वैचारिक मतभेद होंगे ही,
किन्तु मैं मनभेद नहीं करता !
तुम 100 बरस से इधर टस से मस नहीं होगा !
तुम्हें तो पोते की शादी में बारात भी जानी है !
तुम्हारा शुभचिंतक हूँ, यार !
मुझे रुलाओ मत !
रुलाओ मत
मेरे रईश
र-ईश
रईश जावेद !
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8.
●रूसी क्रांति
वामपंथ भी नित नए रूप बदलता रहता है
दुनिया को रूसी क्रांति
और
माओवाद जैसे बड़े पैंडेमिक याद है,
जिसमें करोड़ों लोग मारे गए थे,
पर
इसके छोटे-छोटे एपिडेमिक
पूरी दुनिया में फैलते रहते हैं
और उसमें भी हर साल लाखों लोग मारे जाते हैं।
पर
उनकी गिनती नहीं होती,
वामपंथ के खूनी इतिहास में
वे
सर्दी-ज़ुकाम जैसे ही गिने जाते हैं!
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9.
●ड्रेस कोड
CWG की शुरुआत हो चुकी है
भारतीय एथलीट ने पदक जीतना शुरू कर दिए हैं,
लेकिन
94 साल बाद पहली बार
हमारे पुरुष और महिला एथलीट एक जैसे ड्रेस में आए हैं
जो कि खुशी भरी बात है
यानी
परंपरा को चुनौती देती ड्रेस कोड
लेकिन जहाँ हम परंपरा की बात करते हैं,
तो ओलिम्पिक, एशियन और कॉमनवेल्थ गेम्स में
भारतीय महिला एथलीट तब
साड़ी और ब्लेजर में मार्च पास्ट करते थे
लेकिन इस बार ऐसा नहीं देखने को मिला
भारतीय ओलिम्पिक संघ ने
इस बारे में 20 फरवरी को ही फैसला कर लिया था !
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10.
●इसबार ‘आम’ आमलोगों के लिए नहीं !
कोरोना का कहर
या
लॉकडाउन का असर
कहिये जनाब
कि इसबार ‘आम’
आम लोगों के लिए नहीं रहा !
आम के बच्चे
यानी टिकोले
वहीं बगीचे में कैद है !
टिकोले को सीतु से जो करते थे
घायल
इसबार वो सब बच रहे
टिकोले को पीस चटनी जो बनाते थे
वो वहीं एक के ऊपर एक
सड़-गल रहे
कोशा भी वहीं है
जिसे चुटकियों से फिसला कर कहते थे-
कोशा-कोशा तुम्हारी शादी कौन-सी दिशा ?
फिजिकल डिस्टेंसिंग में यह भी
सटक सीताराम !
नून के साथ अमफक्का जो खाते थे
स्वप्न में दाँत ‘कसका’ भर रह जा रहे !
हाँ, इसबार आम
आमलोगों के लिए नहीं रहा !
फिर आम के आम, गुठली के दाम
तो वेतन नहीं मिलने के कारण
गुठली भी नसीब में नहीं !
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