अपनी-अपनी लड़ाई
हाँ! कविताएँ
लिखती हूँ मैं
क्योंकि
मेरे अंदर एक
बीज गड़ा है
उपेक्षाओं, कुंठाओं
शोक, हर्ष , हताशा
जुगनू सी टिम-टिम
करती आशाओं का
इसे सींचती हूँ मैं
जीवन के हर
अनुभव से मिले
खाद से ,
उस प्रेम से
जो तुम्हारे चौखट से
बिना लिए
लौट आई थी
जानती हूँ ये बीज
वटवृक्ष बनेगा
जब इसे
आकांक्षाओं का
सूरज अपनी
रोशनी से सींचेगा
तब तक ये यात्रा
जारी रहेगी
अथक, अनवरत
क्योंकि मुझे
विश्राम इसी की
छाया में करना है
उन असँख्य
पथिकों के साथ
जो हताश से हैं
अपनी-अपनी
लड़ाइयाँ लड़ते हुए।
— सविता दास सवि