नूरपुर का नूर रामसिंह
पूरे भारत में जिस समय क्रान्ति का लावा बार-बार उबल रहा था उस समय
उत्तरी भारत के अनेक पहाड़ी राज्य आवागमन की कठिनाइयों के बावजूद इसकी
लपेट में आते जा रहे थे।
नूरपुर रियासत सिक्ख राज्य के पतन के साथ ही अंग्रेजों की झोली में आ
गिरी। इसके भूतपूर्व राजा बीरसिंह 80 वर्ष की आयु तक सिक्खों से नूरपुर
को मुक्त कराने के लिए लड़ते रहे और युद्ध भूमि में ही गोली लगने से शहीद
हुए। इस समय तक अधिकांश पहाड़ी रियासतें सिक्खों के अधिकार में थीं।
रामसिंह नूरपुर के भूतपूर्व प्रधन मन्त्री बजीर श्यामसिंह का इकलौता
पुत्र था। वृद्ध राजा बीरसिंह की वीरता को देख चुका था अतः देशप्रेम और
स्वतन्त्रता प्राप्ति की भयंकर लगन के कारण उसने कटोच और पठानिया राज्यों
को अंग्रेजों के चंगुल से मुक्त कराने की ठान ली। अंग्रेजों के विरोध में
यह क्रान्ति यज्ञ में हिमाचल की पहली आहुति थी।
नूरपुर का शासक उस समय मात्र दस वर्षीय बालक जसवन्त सिंह था। सिक्खों ने
चूँकि पहाड़ी रियासतों पर अधिकार कर रखा था अतः इनकी आपस में छोटी-बड़ी
लड़ाइयाँ चलती रहती थीं। रामसिंह ने पहला काम इनमें समझौता कराने का किया।
उसने पहाड़ी राजाओं को यह मानने के लिए विवश किया कि अंग्रेज विदेशी हैं
और सिक्ख फिर अपने हैं।
1846 में लाहौर के अंग्रेज रेजिडेंट ने जसवन्त सिंह के बालक होने का लाभ
उठाने के लिए बालक राजा को किला छोड़ने का आदेश दिया। बदले में बीस हज़ार
मासिक की जागीर देने का वचन दिया जिसे मन्त्रियों ने रियासत के आन्तरिक
मामलों में हस्तक्षेप माना और अंग्रेजों का प्रस्ताव ठुकरा दिया कुपित
होकर अंग्रेजों ने बालपूर्वक किले पर अधिकार किया और बालक राजा को मात्र
पाँच हजार की जागीर दी।
नूरपुर के किले का निर्माण ऐसी जगह किया गया था जो पहाड़ी और मैदानी
दोनों क्षेत्रों का सन्धि स्थल था। अतः इस सामरिक महत्व के किले को
अंग्रेज किसी भी तरह हथियाने पर कटिबद्ध थे। अब जबकि नूरपुर का किला
उन्होंने हथिया लिया तो काँगड़ा, गुलेर, दतारपुर, जसवान और कुल्लू के साथ
भी यही नीति अपनाई। इससे प्रजा में भारी रोष भीतर ही भीतर फैलने लगा।
पहाड़ी रियासतों के लोग अपने राजाओं को बेहद स्नेह करते और सम्मान देते
थे। अंग्रेजों ने इन पहाड़ी रियासतों पर कब्जा करके न केवल यहाँ के खजानों
में रखे हीरे जवाहरात और सोना-चांदी की लूट मचाई अपितु इसाई मत के प्रचार
हेतु भी कार्य किया।
रामसिंह इस तमाशे और बर्बादी को देख कर अन्दर ही अन्दर खौल रहा था और
अवसर की ताक में रहा। 1884 से 1884 तक राम सिंह ने छोटी-बड़ी पहाड़ी
रियासतों को एक मन्च पर ला खड़ा किया और इन सब को अंग्रेजों के विरुद्ध
भड़काता रहा। साथ ही हरिपुर हज़ारा (जो अब पाकिस्तान में है) के सिक्ख
गवर्नर सरदार छतर सिंह के पुत्र शेरसिंह से भी सम्पर्क रखा। गुप्त
मन्त्रणाएँ होती रहीं और अंग्रेजों को देश से भगाने की योजनाएँ बनती
रहीं।
मार्च 1848 में जहाँ एक मुलतान के दीवान मूलराज ने युद्ध की घोषणा करके
अनेकों अंग्रेजों को मौत के घाट उतारा वहीं दूसरी ओर द्वितीय सिक्ख युद्ध
का बिगुल बज उठा। अंग्रेज सेना दोनों मोर्चों पर उलझी हुई देख राम सिंह
ने शाहपुर के किले पर आक्रमण कर दिया। अंग्रेज सेना इस हमले के लिए तैयार
नहीं थी अतः किले में रखे भारी मात्रा में गोला बारूद और तोपों को छोड़कर
भाग गई।
प्रातः ही रामसिंह ने तोप गर्जन के साथ युवक जसवंत सिंह को उस क्षेत्र
का राजा घोषित करके लोगों को मातृभूमि को अंग्रेजों के पंजे से मुक्त
कराने की शपथ दिलाई। भारी जन समूह ने राजा जसवन्त सिंह और भारत माता की
जय के नारों के बीच अंतिम सांस तक संघर्ष करने की कसम खाई। किले पर
यूनियन जैक के स्थान पर पठानिया राज्य का झण्डा लहराने लगा। जनता में एक
नया उत्साह जागा और चारों तरफ़ रामसिंह के नाम का डंका बजने लगा।
क्रान्ति की सूचना जब होशियार पुर और कांगड़ा पंहुची तो कांगड़ा किले की
सुरक्षा के लिए अठाइसवीं रेजीमेंट की तीन टुकड़िया तैनात करके जिलाधीश
वारनस शाहपुर के लिए चल पड़ा राजपूत बड़ी वीरता से लड़ रहे थे अतः अंग्रेज
पर्याप्त सेना और गोली-बारूद के होने पर भी उन्नीस पड़ रहे थे अब
होशियारपुर से कमिश्नर लारेंस की सेना भी सहायतार्थ आ पहुँची। बचाव की
आशा न देख रामसिंह बचे सैनिकों के साथ रातों-रात भाग निकला और नूरपुर
जाकर फिर से मोर्चा सम्भाल लिया। अंग्रेज सेना ने यहाँ उसे फिर घेर लिया।
रामसिंह को पुनः भागना पड़ा और बचता-बचाता मैदानों की तरफ उतर गया। जहाँ
उसने रसूल में सिक्ख कैम्प में शरण ली।
जिसकी धमनियों में लहू के स्थान पर देशभक्ति का लावा बहता हो वह भला चुप
कैसे बैठ सकता है। रामसिंह भेष बदल कर काँगड़ा, दतारपुर, जसवान, गुलेर और
अन्य पहाड़ी रियासतों के कणधारों से सम्पर्क साधता ही रहा। इन सब राजाओं
ने पहाड़ी रियासतों से अंग्रेजों को भगाने में रामसिंह की सहायता करने का
वचन दिया और योजनानुसार सैनिक तैयारी होने लगी। सिक्खों ने भी अंग्रेजों
को भगाने में मदद करने के बदले इन पहाड़ी राजाओं को उनके पैतृक राज्य वापस
दिलाने की शपथ ली। इस योजना के अनुसार उनको अंग्रेजों का ध्यान पहाड़ों से
मैदानों की ओर हटाना था। इन राजाओं की सहायता से अंग्रेज सेना को पीछे
हटाना था।
महाराजा रणजीत सिंह की मृत्यु के बाद अंग्रेजों ने राजमाता जिंदा और
उनके पुत्र महाराजा दिलीप को बंदी बनाया और देश निकाला दिया। राजमाता को
बनारस और दिलीप सिंह को रंगून भेजकर उनके केस मुडंवा दिए गए। प्रधान
मंत्री लाल सिंह को फांसी पर लटका दिया गया। जिससे क्रोधित सिक्ख अवसर की
ताक में थे अतः सरदार शेर सिंह की अध्यक्षता में सिक्खों ने युद्धका
शंखनाद किया। रावी पार अंग्रेज कमांडर लार्ड गुई ने 16 नवम्बर 1848 के
दिन शेरसिंह का सामना किया जिसमें योजनानुसार रामसिंह भी सेना सहित शामिल
था। अगली कड़ी में बसावा सिंह ने सेना के साथ पठानकोट पर अधिकार कर लिया।
अतः काँगड़ा में नाम मात्र सेना छोड़ वारनस पठानकोट दौड़ा। काँगड़ा के राजा
प्रबुद्ध चन्द ने मौके का लाभ उठाकर अंग्रेज सेना पर आक्रमण कर उनसे
काँगड़ा का किला छीन लिया और महल मोरी की ओर बढ़ा।
जब तक वारनस लौटा तब तक प्रबुद्ध चन्द टीरा सुजानपुर तक बढ़ चुका था। उधर
जसवान के राजा उमेद सिंह उनके पुत्र जयसिंह, दतारपुर के राजा जगत चन्द और
सिक्ख कमांडर सन्त बेदी विक्रम सिंह ने भी क्रान्ति की दुंदभी बजाई।
अपने-अपने राज्य जीतकर ये लोग काँगड़ा की ओर बढ़ रहे थे। इन्हीं दिनों रोपड़
से लेकर हाजीपुर तक क्रान्ति भड़क उठी। योजना अनुसार वारनस को बीच में
फंसाकर पीस डालने वाली थी राजपूत सेना। सब कुछ पूर्व नियोजित हो रहा था।
विजय निश्चित थी कि गुलेर के राजा शमशेर सिंह ने विश्वासघात किया और
अंग्रेजों को सूचना दे दी।
तुरन्त ही कमिश्नर लारेंस भारी सेना लेकर काँगड़ा की ओर बढ़ आया। राजा
प्रबुद्ध चन्द तब तक रिथाई और अभिमानपुर के किलों पर अधिकार कर चुके थे
रिथाई में उन्हें इक्कीस तोपों की सलामी दी गई। सुजानपुर-टीरा में
सिक्खों के समय से गोला-बारूद बहुतायत से जमा हो रहा था। अतः कटोच राजा
द्वारा इस किले पर कब्जा करने से अंग्रेज घबरा उठे। इसके साथ ही अंग्रेज
अफ़सरों के आधीन देसी टुकड़िया लड़ाई में अंग्रेजों का साथ नहीं दे रही थीं।
दिसम्बर 1848 में अंग्रेज सेना सुजानपुर आ पहुँची और किले को घेर लिया।
तभी राजपूत राजाओं की सेनाएं भी पिछवाड़ी आक्रमण के लिए आगे बढ़ी। इसी समय
इन लोगों को योजना की जानकारी प्राप्त हुई कि लगभग एक हज़ार राजपूत सतलुज
पार कर आक्रमण करने वाले हैं। अंग्रेज सेना गहरी खाई में जा छिपी जहाँ
राजपूतों ने उन्हें घेर कर भारी क्षति पहुंँचाई। भयंकर मारकाट मची हुई
थी। तभी लारेंस आ पहुँचा तोपों ने इतनी आग उगली कि राजपूत टिक न सके।
योजना असफ़ल होने से कटोच राजा प्रबुद्धचन्द को समर्पण करना पड़ा। इसी तरह
एक-एक कर सभी पहाड़ी राजा पकड़ कर अल्मोड़ा जेल भेज दिए गए जहाँ भारी
यातनाएँ भोग कर वे वीरगति को प्राप्त हुए। अधिकतर किलों और महलों को
तोपों से उड़ा दिया गया। बेदी ने शेर सिंह की शरण ली किन्तु रामसिंह फिर
भी युवकों को संगठित करता रहा और शेर सिंह को पुनः सहायता हेतु बाध्य
किया। अतः जनवरी 1849 में पुनः एक हजार सैनिक सिक्खों से लेने में सफ़ल
हुआ।
अंग्रेज अभी काँगड़ा ही में उलझे हुए थे कि रामसिंह ने थोड़ी सी अंग्रेज
सेना को नूरपुर से खदेड़ दिया। राज्य के अधिकतर भाग पर अधिकार होने के बाद
उसने दुल्लाधार में अपना गढ़ बनाया। यहाँ सैकड़ों फुट ऊँचे टीले और
सैण्डस्टोन की टेकरियाँ स्वयं ही अलग एक-एक किले की तरह थीं। यहाँ तक
पहुंँचना बड़े दम-ख़म का काम था।
लारेंस ने जनरल व्हीलर के नेतृत्व में एक बड़ी सेना रामसिंह को पकड़ने के
लिए भेजी। छापा मार युद्ध से रामसिंह ने अंग्रेजों के हौसले पस्त कर दिए,
फिर भी व्हीलर ने रामसिंह को तीन तरफ़ से घेर लिया। घमासान यु( हुआ। दोनों
और भारी संख्या में सैनिक मारे गये। अंत जान रामसिंह घोड़े पर सवार हो
अंग्रेज सेना के बीच अपने बचे साथियों सहित कूद पड़ा। जब तक अंग्रेज
सम्भलते वे लोग आँधी की तरह निकल भागे, किन्तु रामसिंह ने दायें बाजू में
गोली लगने के कारण अपने मित्र पहाड़चन्द के यहाँ शरण ली जिसने चन्द
सिक्कों के लोभ में उसे अंग्रेजों के हवाले कर दिया।
भारत माता के इस वीर सपूत को सिंगापुर जेल में भारी यातनाएँ दी गईं। यह
घायल सिंह उसी जेल में 17 अगस्त 1849 को वीर गति को प्राप्त हुआ।ं
— आशा शैली