संजीवनी
(विश्व पर्यावरण दिवस 5 जून पर विशेष)
”कौन हो बेटी?” आगंतुक आकृति ने घुटनों में सिर छिपाए उदास-सी बैठी महिला से सवाल किया.
सवाल स्वाभाविक था, पर महिला से कुछ जवाब देते न बना. उसकी मायूसी और मुखर हो उठी थी.
”मेरा नाम पृथ्वी हो प्रकृति हो या फिर सृष्टि, हूं तो मैं पीड़िता ही!” बार-बार झकझोरे जाने पर उसने जवाब दिया. शायद उसे पीड़ा बांटने वाली आकृति की झलक मिल गई थी.
”तुम वसुंधरा हो बेटी!” आकृति ने ढाढ़स बंधाने की कोशिश की.
”निश्चय ही मैं वसुंधरा थी और आज भी हूं. आज भी लोग मुझे रत्नगर्भा कहते हैं और सचमुच अब भी मेरे गर्भ में रत्नों का अकूत अंबार है, लेकिन लोभ-लालसा के मारे विकृत मनुष्य के स्वभाव ने मुझे प्लास्टिकगर्भा बना दिया है.”
”तो तुम्हें मनुष्य से शिकायत है?” आकृति ने कुरेदने की कोशिश की.
”मनुष्य से नहीं, मनुष्य की विकृत करतूतों से. मैंने वृक्षों को पाला वृक्ष तपस्वी की भांति तप और जन कल्याण में लगे रहते हैं, पक्षी अपने मधुर संगीत से मुझे गुंजायमान रखते हैं, सुमन मुझे रंग-रंगीला और महकीला बनाए रखकर सारे संसार को द्रष्टव्य बनाते हैं. तृषा को तृप्त करती कल-कल बहती नदियां अपने कर्त्तव्यपालन में लगी हुई हैं. समंदर मोती उगल रहे हैं और पर्वत रक्षा करने के साथ जड़ी-बूटियों का उपहार भी बांट रहे हैं. मैंने मनुष्यों को भी पाला. लेकिन मनुष्य मेरी खुशमिजाजी, धैर्यशीलता और विश्वसनीयता का नाजायज लाभ उठाकर अपने स्वार्थ के लिए मनमानी करने से बाज नहीं आता, क्या मैं झूठ कह रही हूं?”
”यह सर्वथा सत्य है बेटी! वह कहने को तो कहता है-
‘ये नदियाँ, पेड़, पर्वत, ये धूप, हवा, पानी,
धरती के लिए ये सब, वरदान ही तो हैं !!’
लेकिन स्वार्थी-सुविधाभोगी मनुष्य ने स्वार्थ की सभी सीमाएं पार कर डाली हैं और पर्यावरण को प्रदूषित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है. जल-प्रदूषण, भूमि-प्रदूषण, वायु-प्रदूषण, ध्वनि-प्रदूषण तो था ही अब तो वाक्-प्रदूषण ने भी तन-मन-परिवेश को अवसाद-ग्रसित कर रखा है. एक समय ईथर में श्रीमद्भग्वद्गीता की वाणी गुंजायमान होती थी, आज गाली-गलौज और विवादास्पद बोलों का बोलबाला है.” आकृति खुद भी भयाक्रांत हो गई थी.
”आपने मेरी व्यथा को सही पहचाना! इसलिए मनुष्य आपदाओं से ग्रस्त है. दुनिया कोरोना वायरस की चपेट में है. ऊपर से कभी ‘अम्फान’ चक्रवात कभी ‘निसर्ग’ चक्रवात सता रहे हैं. आए दिन भूकंप दिल हिला रहे हैं. पर मनुष्य की चेतनता जागरुक होने को ही नहीं आ रही.” पीड़िता मानो सुबकने-सी लगी थी.
”बेटी अब तो बिंदास रहने वाला मनुष्य नितांत बेबस हो गया है. देखो, हाथों में दस्ताने पहनकर मुख पर मास्क लगाकर चल रहा है. लिपिस्टिक-रूज़ की जगह सेनेटाइज़र और साबुन साथ लेकर चलने को विवश है, प्लास्टिक बैग की जगह अब जूट और कपड़े के थैले लेकर चलने लगा है. जुर्माने के डर से ही सही रास्ते में थूकना भी उसने बंद कर दिया है और रास्ते में कूड़ा भी नहीं फेंकता. मुख पर मास्क के कारण कम बोलता है और बोलने से पहले सौ बार तोलता है और कहने लगा है-
हमारा कोई समाज नहीं होगा
अगर हम पर्यावरण को नष्ट करते हैं.”
पीड़िता अब भी मौन थी.
”अब तुम खुद को पीड़िता समझना छोड़ दो, खुश रहो, खुश रहने दो, तुम्हारी पीड़ा समाप्त होने का समय आ गया है. इसलिए उठो बेटी और फिर से तन-मन के श्रंगार को सजने दो.” यह आकृति का परामर्श भी था, आदेश भी और संभवतः प्रोत्साहन का संबल भी.
प्रोत्साहन का यह संबल पीड़िता के लिए संजीवनी बन गया था.
5 जून, 2020
आज पृथ्वी हो प्रकृति हो या फिर सृष्टि, व्यथा से पीड़ित है. इसलिए मनुष्य आपदाओं से ग्रस्त है. दुनिया कोरोना वायरस की चपेट में है. साथ ही समुद्री चक्रवात भी लोगों को सांस नहीं लेने दे रहे हैं. पहले बंगाल की खाड़ी से ‘अम्फान’ चक्रवात उठा था. इससे पूर्वी तट पर ओडिशा और बंगाल में नुकसान हुआ था. अब पश्चिमी तट यानी अरब सागर की ओर से ‘निसर्ग ‘चक्रवात आया. आए दिन भूकंप दिल हिला रहे हैं. पर मनुष्य की चेतनता जागरुक होने को ही नहीं आ रही.” पीड़िता के पास सुबकने के सिवा और बच्चा ही क्या है?.मनुष्य की पीड़ा से सृष्टि भी व्यथा से पीड़ित है. काश! अब भी मनुष्य चेत जाए, तो कोरोना और लॉकडाउन के कारण कम हुआ प्रदूषण और स्वच्छ पर्यावरण बने रह सकें. आज से धार्मिक स्थल, मॉल, रेस्त्रां, होटल आदि खुल रहे हैं, पर हमें और अधिक सावधान रहना होगा.