क्रांतिधर्मी बिरसा मुंडा की तुलना किसी से नहीं की जा सकती !
रांची के बीचो-बीच स्थित पुराना जेल, जहां 9 जून 1900 को उन्होंने अंतिम सांस ली थी। जेल का वह हिस्सा जिसमें वो रहते थे, आज भी सुरक्षित रखा गया है। जेल परिसर में ही बिरसा मुंडा की विशाल प्रतिमा लगाई गई है। आज भी बिहार, उड़ीसा, झारखंड, छत्तीसगढ और पश्चिम बंगाल के आदिवासी इलाकों में बिरसा मुंडा को भगवान की तरह पूजा जाता है।
भारतीय ज्ञानपीठ विजेत्री महाश्वेता देवी ने अपने महान कालजयी उपन्यास ‘जंगल के दावेदार’ में लिखती हैं, ‘अगर उसे उसकी धरती पर दो वक़्त दो थाली घाटो, बरस में चार मोटे कपड़े, जाड़े में पुआल-भरे थैले का आराम, महाजन के हाथों छुटकारा, रौशनी करने के लिए महुआ का तेल, घाटो खाने के लिए काला नमक, जंगल की जड़ें और शहद, जंगल के हिरन और खरगोश-चिड़ियों आदि का मांस-ये सब मिल जाते तो बिरसा मुंडा शायद भगवान न बनता।’
संत बिरसा के ‘उलगुलान’ के रुमानीवाद को साहित्य और जंगल से निकलकर साम्यवाद के हाथों में लाने वाले थे चारू मजुमदार, कानु सान्याल और जगत संथाल। इन्होंने इसे नक्सलवाद का रंग दे दिया। ‘नक्सलवाद’ शब्द की उत्पत्ति पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी गांव से हुई है। साम्यवाद के सिद्धान्त से फ़ौरी तौर पर समानता रखने वाला आदिवासी आंदोलन कई मायनों में अलग भी था। बाद में इसे माओवाद से जोड़ दिया गया। हालात तो आज भी नहीं बदले हैं। आदिवासी गांवों से खदेड़े जा रहे हैं, दिकू अब भी हैं। जंगलों के संसाधन तब भी असली दावेदारों के नहीं थे और न ही अब हैं। आदिवासियों की समस्याएं नहीं बल्कि वे ही खत्म होते जा रहे हैं। सब कुछ वही है। जो नहीं है तो आदिवासियों के ‘भगवान’ बिरसा मुंडा। ‘सत्याग्रह’ के अनुसार उनकी कृति महत्वश: ही ये संत व चमत्कारी पुरुष आज भी झारखंड ही नहीं, देश-दुनिया के लोगों में चिरनित बसे हैं! यही तो अमरता है। फिर उनकी यही चीज तो उन्हें ‘भगवान’ बनाता है!