लघुकथा

राखी का उपहार

अगस्त का महीना था। स्वतंत्रता दिवस, रक्षाबंधन और रविवार तीनों लगातार पढ़ रहे थे अतः कॉलेज में चार-पांच दिन की छुट्टी घोषित हुई थी मैं सहेलियों के साथ कैंपस में ही घूम रही थी और काफी देर से देख रही थी कि एक लड़का आसपास ही मंडरा रहा है। मैंने कुछ दिनों पहले भी ऐसा ही महसूस किया था। एक बार तो मन गुस्से से भर उठा था, लेकिन वह बड़ा शरीफ नजर आता था। कभी किसी तरह की अभद्रता करते नहीं देखा था मैंने उसे इसलिए चुपचाप रही।
कुछ समय बाद मैं सखियों से विदा लेकर गेट की ओर बढ़ी तो देखा वह भी मेरे आस-पास चल रहा है। मैंने हेय दृष्टि से उसको देखा, फिर आगे बढ़ गयी।
तभी तेज कदमों से मेरे पास आकर मुझे एक तस्वीर दिखाते हुए वह बोला,” इसे देखिए प्लीज।” देखा तो मैं चौंक पड़ी। बिल्कुल मेरी प्रतिछाया थी उस तस्वीर में दिखने वाली लड़की। मैंने कौतूहलवश पूछा, “कौन है ये?”उसने उदास होकर बताया, “ये मेरी बहन थी, जिसकी दो माह पूर्व मौत हो गई ।आपमें मुझे उसकी छवि दिखती है। आज अपने आप को रोक नहीं पाया। राखी का त्यौहार नजदीक है।” उसकी आंखें नम हो गईं थीं। मैंने उसे ढांढस बंधाया और कहा, “तुम राखी के दिन मेरे घर आओगे और मैं तुम्हें राखी पहनाऊंगी।”
फोन उन दिनों सर्वसुलभ थे नहीं। मैंने उसे पड़ोस की दुकान का पता बताया और वहां पूछ लेने को कहा। वह बहुत प्रसन्न था। राखी के दिन वह सुबह दस बजे थोड़ा सकुचाते हुए घर पहुंचा। मैंने उसे राखी बांधी। मां ने हम दोनों के लिए साथ खाना परोसा। उपहार स्वरूप एक पुस्तक लाया था वह मेरे लिए।
तब से आज तक यह सिलसिला जारी है। आज मेरे पास एक सहारा देने वाला सशक्त भाई, एक प्यार करने वाली भाभी और एक नटखट भतीजा भी है।
— अमृता पांडे

अमृता पान्डे

मैं हल्द्वानी, नैनीताल ,उत्तराखंड की निवासी हूं। 20 वर्षों तक शिक्षण कार्य करने के उपरांत अब लेखन कार्य कर रही हूं।

2 thoughts on “राखी का उपहार

  • अनंत पुरोहित 'अनंत'

    बहुत सुन्दर रचना

    • अमृता पान्डे

      जी आभार आपका

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