एक गांडीव
गाण्डीव धरा, अर्जुन चला , रथ पर हो सवार ,
अश्वमेध का घोड़ा आगे , पीछे में सैनिक हजार ।
विजयी – विजयी की नाद , बात बहुत – ही पुरातन थी ,
घोड़ा हिन् – हिन् कर ठहरा , चम्पकपुरी भी पुरातन थी ।
अर्जुन के रथ पर अर्जुन केवल, न मातालि, न कृष्ण था ,
सारथी अलग थे अलग – वलग , न काली , न वृष्ण था ।
सामने अड़े थे – एक छोरे , छट्टलवन के अभिमन्यु थे ,
तब कुश-जैसे राम के आगे , वीर-बाँकुरे क्रांतिमन्यु थे ।
सुधन्वा – नाम कहलाता , दिया परिचय उन्होंने ,
सारथी कृष्णचन्द्र को बुला , कहा पुनः – पुनः उन्होंने ।
अर्जुन सोच रहा – जन्मे आगे मेरे , मेढक-सा टर्राटा है,
छोटी मुँह से बड़ी बात कह , परदिल को घबराता है ।
आत्म – स्मरण , कृष्ण – समर्पण, कर छोड़ा एक तीक्ष्ण वाण,
धराशायी हो, कृष्ण दर्शन कर , निकल सुधन्वा का प्राण ।