अ-दिलचस्प विचार
मुझे किसी के भी फालतू बातों में मेरी कोई दिलचस्पी नहीं रहती थी । यह नहीं था कि मैं साधु था या कोई आडम्बरयुक्त व पाखंडी विचारों को गृह किये था, अपितु मेरे किस्से तो साफ़गोई का पेस्ट चस्पाये था। यह भी नहीं था कि मैं ‘यौन’ शब्द से अनभिज्ञ था, किंतु कुत्ते-कुत्ती, बकरे-बकरी, घोड़े-घोड़ी, साँड़-गायें, सूअर-सुअरी तक ही सीमित मानता था । पौरुषेय और नारीत्व के दर्शनों में ये यौन शब्द कहाँ से आ जाते हैं ! शायद अंदर की संवेदना इसकी इजाजत भी नहीं देता था…. पीजी में मुझे गोल्ड मेडल मिला और पिताजी के पत्र भी उसी दिन प्राप्त हुए कि अब competition की तैयारी करो, मैं रिटायरमेंट होनेवाला हूँ।