लघुकथा

तुम आओगी ना..!

“अच्छा तो मैं चलूँ अब आरिफ़?”….बहुत देर की चुप्पी के बाद सुनीता ने पूछा
सुनीता, ये हमारी आखरी मुलाकात है। मुझे तुम्हें जी भर के देख लेने दो। बहुत कुछ कहना है तुमसे पर कुछ समझ ही नहीं आ रहा। पर तुम उदास मत हो सुनीता। अलग-अलग धर्म व परिवार जनों के कारण हम एक ना हो पाए तो क्या हुआ। तुम हमेशा मेरे दिल में रहोगी।
पता है सुनीता….मैंने आज एक सपना देखा। मैंने देखा कि हम दोनों अपनी सभी जिम्मेदारियाँ निभा चुके है, तब बुढ़ापे में लकड़ी लेकर मैं तुमसे एक बार फिर मिलने आया हूँ। जानती हो क्यो? क्योंकि उस समय कोई बंदिश नहीं है। ना तुम्हारे ऊपर, ना मेरे ऊपर।
सुनीता सोचो वो दौर भी कैसा होगा न!! कितना सुंदर, कितना खुशहाल। ना किसी का डर होगा, ना कोई दायरे…..
कहो ना सुनीता…! तुम आओगी ना मुझसे मिलने? आँखों पर मोटा -सा चश्मा होगा। उस चश्मे से निहारूँगा तुम्हारी हिरनी जैसी आँखों को…।
तुम रख देना सर अपना हौले से मेरे कंधे पर। मैं संवार दूंगा तुम्हारी ज़ुल्फ़ों को, अपने झुर्री पड़े…कोमल हाथों से…!
मैं छूना नहीं चाहता तुम्हे…, बस हवाओं की हर पुरवाई में महसूस करना चाहता हूँ, बेहद करीब से…तुम्हारे सुवास में, अपने अहसास को, ख़ुदा की इबादत की तरह..।
बोलो ना..!! तुम मुकम्मल करोगी ना…मेरे इस सपने को? तुम मिलने आओगी ना?
— सोनल ओमर

सोनल ओमर

कानपुर, उत्तर प्रदेश हिंदी साहित्य की विद्यार्थी एवं स्वतंत्र लेखन [email protected]