कविता

जख्म बहुत गहरे हैं

सुनो!
तुमने कहा एक बार ही सही विश्वास तो करो…..
और हमने इस पर संदेह किया…
सुनो! तुमने कहा एक पल में ही सही मेरा विश्वास करो…….
और इस विश्वास पर विश्वास करो…..
इस प्रेम पर, प्रेम की मनुहार पर,
विश्वास पर, विश्वास के विश्वास पर….
हो गया विश्वास….जानते हो क्यों???
विश्वास पर विश्वास था…
जो पहले हुआ नहीं कभी….
या फिर
शायद किसी ने पहले छला न कभी…..
सुनो!
कभी सोचा, क्या खोया है तुमने?
हृदय से सम्मान खोया,
जो एक शिष्य अपने गुरु का करता है…..
हृदय से फिर भक्ति खोई…
जो भक्त भगवान पर करता है…
हृदय से फिर प्रेम खोया…..
जितना की चकोर चांद से करता है….
हृदय से फिर समर्पण खोया….
जो सम्मान,भक्ति और प्रेम  तीनों में ही समाहित है….
सुनो!
क्या अब भी समझे हो
तुमने क्या खोया और क्या पाया है?
शायद नहीं?
उसके लिए जमीर का जिंदा रहना भी तो बहुत जरूरी है?
या फिर
शायद तुम्हारी कोई मजबूरी है?
सुनो!
तुम कह भी सकते थे जाओ….
मेरे कई चेहरे हैं…
पर तुम्हारे जख्म बहुत गहरे हैं…
सच, बहुत गहरे हैं।
— सुषमा त्रिपाठी

सुषमा त्रिपाठी

शिक्षिका, गोरखपुर (उ.प्र.)