कौन हृदय की पीर सुनेगा?
कौन हृदय की पीर सुनेगा ,इस दुख के निर्जन कानन में ?
घड़ी वेदना की निर्मम है, एक झंझावात सा है मन में ।
मोल करेगा कौन जौहरी,मोती टपक रहे हैं दृग से?
शूल और पाषाण चुनेगा ,कौन भला इस दुष्कर मग से?
कौन मेरे उर की पीड़ा को ,अपनी पीड़ा समझ सकेगा,
क्यों मैं कोई आशा पालूँ,स्वारथरत, कटुतामय जग से ?
अब ममत्व-कण शेष नही है, वसुधा के विशाल आँगन में।
कौन हृदय की ………………………………..
ऐ विधिना! कोमल पुष्पों संग क्यों तूने काँटे उपजाये ?
क्यों मलीन कीचड़ में तूने,पुष्प जलज के हैं महकाये ?
उल्टी चीजों के कितने ही मेल किये हैं निज रचना में,
फिर समान मानव से मानव मेल भला क्यों न कर पाये ?
तेरी रचना को ठुकराकर ,तूझे ढूँढते हैं पाहन में ।
कौन हृदय की पीर सुनेगा…………………..
जिनको अपना कहा, उन्होनें गैरों सा व्यवहार किया है।
जिस पर भी उपकार किया है ,उसने ही प्रतिकार किया है।
किसे भला अपनाऊँ जग में ,किसको अपना मीत कहूँ मैं?
अवसर मिलते मन पक्षी पर ,इक सचान सा वार किया है ।
एक सूना सा नीड़ शेष है,अब सपनों के वातायन में ।
कौन हृदय की पीर सुनेगा………………………..
— डॉ. दिवाकर दत्त त्रिपाठी