एक अजीम शायर – राहत इन्दौरी
राहत क़ुरैशी उर्फ राहत इन्दौरी का जन्म 1 जनवरी 1950 को इंदौर में हुआ था। उनके पिता का नाम रफअत उल्लाह क़ुरैशी और माँ का नाम मकबूलुन निशा बेगम था। उनकी 2 बड़ी बहनें हैं जिनके नाम तकीरेब और तहज़ीब हैं। उनका बड़े भाई का नाम अकील और छोटे भाई का नाम आदिल है। शुरुआती तालीम देवास और इंदौर के नूतन स्कूल से हासिल करने के बाद इंदौर विश्वविद्यालय से उर्दू में एम.ए. और ‘उर्दू मुशायरा’ उन्वान से पी एच.डी. की डिग्री हासिल की। उसके बाद 16 वर्षों तक इंदौर विश्वविदायालय में उर्दू साहित्य के अध्यापक के तौर पर अपनी सेवाएं दी और त्रैमासिक पत्रिका ‘शाखें’ का 10 वर्षों तक संपादन किया।
राहत इंदौरी उर्फ राहत कुरैशी ने दो शादियां की थी। उन्होंने पहली शादी 27 मई 1986 को सीमा राहत से की। सीमा से उनको एक बेटी शिबिल और 2 बेटे फैज़ल और सतलज राहत हैं। उन्होंने दूसरी शादी अंजुम रहबर से साल 1988 में की थी। अंजुम से उनको एक पुत्र हुआ, कुछ सालों के बाद इन दोनों में तलाक हो गया था।
राहत इंदौरी के शायर बनने की कहानी भी दिलचस्प है। वो अपने स्कूली दिनों में सड़कों पर साइन बोर्ड लिखने का काम करते थे। बताया जाता है कि उनकी लिखावट काफी सुंदर थी। वो अपनी लिखावट से ही किसी का भी दिल जीत लेते थे लेकिन तकदीर ने तो उनका शायर बनना मुकर्रर किया हुआ था। एक मुशायरे के दौरान उनकी मुलाकात मशहूर शायर जां निसार अख़्तर से हुई।ऑटोग्राफ लेते वक्त राहत इंदौरी ने उनसे शायर बनने की इच्छा जाहिर की। तब अख्तर साहब ने कहा कि पहले 5 हजार शेर जु़बानी याद कर लो फिर शायरी खुद ब खुद लिखने लगोगे। तब राहत इंदौरी ने जवाब दिया कि 5 हजार शेर तो मुझे पहले से ही याद हैं। इस पर अख्तर साहब ने कहा कि फिर तो तुम पहले से ही शायर हो, देर किस बात की है स्टेज संभालो। उसके बाद राहत इंदौरी इंदौर के आसपास के इलाकों की महफिलों में अपनी शायरी का जलवा बिखेरने लगे। धीरे-धीरे वो एक ऐसे शायर बन गए जो अपनी बात अपने शेरों के जरिए इस कदर रखते थे कि उन्हें नजरअंदाज करना नामुमकिन हो जाता। राहत इंदौरी की शायरी में जीवन के हर पहलू पर उनकी कलम का जादू देखने को मिलता था। बात चाहे दोस्ती की हो या प्रेम की या फिर रिश्तों की, राहत इंदौरी की कलम हर क्षेत्र में जमकर चलती थी।
डॉ. राहत इंदौरी उर्दू तहज़ीबऔर शायरी के घने शजर की तरह थे। लंबे अरसे से श्रोताओं के दिल पर राज करने वाले राहत इंदौरी की शायरी में हिंदुस्तानी तहजीब का प्रमुख स्थान था। कहते थे कि शायरी और ग़ज़ल इशारे का आर्ट है, राहत इंदौरी इस आर्ट के बहुत माहिर खिलाड़ी थे। उनका कहना था कि यदि शहर जल रहा हो और मैं कोई रोमांटिक ग़ज़ल कह रहा हूँ तो मैं शायराना कद्रों मुल्क और समय सभी से दगाबाज़ी कर रहा हूँगा।
शायरी लिखने के साथ साथ राहत साहब एक माहिर पेंटर भी थे। बहुत दिनों तक उन्होंने व्यावसायिक पेंटर के तौर पर काम किया था। इस दौरान वह बॉलीवुड फिल्मों के पोस्टर और बैनर भी बनाते रहे। इसके साथ ही वे किताबों के कवर भी डिजाइन करते थे। मुशायरों और कवि सम्मेलनों के साथ उन्होने कई बॉलीवुड ब्लॉकबस्टर फिल्मों के गीत भी लिखे हैं।
राहत साहब की शायरी में आम आदमी की भाषा का बखूबी इस्तेमाल किया है। उनके शेर सीधे श्रोताओं और पढ़ने वाले के दिल दिमाग़ में उतर जाते थे। व्यवस्था को आईना दिखाना हो कि नौजवानों को मुहब्बत के रंग से सराबोर करना हो।हर अवसर के लिए उनके पिटारे में अनगिनत अश्आर थे। बानगी पेश ए ख़िदमत है:—-
एक ही नदी के हैं ये दो किनारे दोस्तों,
दोस्ताना ज़िंदगी से मौत से यारी रखो।
बीमार को मरज़ की दवा देनी चाहिए।
मैं पीना चाहता हूं पिला देनी चाहिए।
वो चाहता था कि कासा ख़रीद ले मेरा,
मैं उस के ताज की क़ीमत लगा के लौट आया।
अफवाह थी की मेरी तबियत ख़राब है,
लोगों ने पूछ पूछ के बीमार कर दिया।
सभी का खून है शामिल यहां की मिट्टी में
किसी के बाप का हिंदुस्तान थोड़ी है
अंदर का ज़हर चूम लिया धुल के आ गए।
कितने शरीफ़ लोग थे सब खुल के आ गए।
दो गज सही मगर ये मेरी मिल्कियत तो है,
ऐ मौत तूने मुझको जमींदार कर दिया।
मैं जानता हूँ दुश्मन भी कम नहीं,
लेकिन हमारी तरह हथेली पर जान थोड़ी है।
किसने दस्तक दी, कौन है।
आप तो अंदर है बाहर कौन है।
शाख़ों से टूट जाएँ वो पत्ते नहीं हैं हम,
आँधी से कोई कह दे कि औक़ात में रहे।
ये ज़िंदगी जो मुझे क़र्ज़-दार करती रही,
कहीं अकेले में मिल जाए तो हिसाब करूँ।
हम से पहले भी मुसाफ़िर कई गुज़रे होंगे,
कम से कम राह के पत्थर तो हटाते जाते।
जनाज़े पर मिरे लिख देना यारो,
मोहब्बत करने वाला जा रहा है।
दोस्ती जब किसी से की जाए।
दुश्मनों की भी राय ली जाए।
मैं जब मर जाऊं तो मेरी अलग पहचान लिख देना।
लहू से मेरी पेशानी पर हिंदुस्तान लिख देना।
आंख में पानी रखो होंटों पे चिंगारी रखो।
ज़िंदा रहना है तो तरकीबें बहुत सारी रखो।
मेरे हुजरे में नहीं और कहीं पर रख दो।
आसमां लाए हो ले आओ ज़मीं पर रख दो।
ये बूढ़ी क़ब्रें तुम्हें कुछ नहीं बताएँगी,
मुझे तलाश करो दोस्तो यहीं हूँ मैं।
अब ना मैं हूँ ना बाक़ी हैं ज़माने मेरे।
फिर भी मशहूर हैं शहरों में फ़साने मेरे।
लोग हर मोड़ पे रुक रुक के सँभलते क्यूं है।
इतना डरते हैं तो फिर घर से निकलते क्यूं हैं।
मैं ताज हूं तो ताज को सर पर सजाएँ लोग,
मैं ख़ाक हूं तो ख़ाक उड़ा देनी चाहिए।
अजीब लोग हैं मेरी तलाश में मुझ को
वहाँ पे ढूँढ रहे हैं जहां नहीं हूँ मैं।
बादशाहों से भी फेंके हुए सिक्के न लिए,
हम ने ख़ैरात भी माँगी है तो ख़ुद्दारी से।
ये हादसा तो किसी दिन गुजरने वाला था।
मैं बच भी जाता तो एक रोज मरने वाला था।
हों लाख ज़ुल्म मगर बद-दुआ’ नहीं देंगे।
ज़मीन माँ है ज़मीं को दग़ा नहीं देंगे।
अभी गनीमत है सब्र मेरा अभी लबालब भरा नहीं हूं मैं।
वो मुझको मुर्दा समझ रहा है उसे कहो मरा नहीं हूं मैं।
रात की धड़कन जब तक ज़ारी रहती है।
सोते नहीं हम ज़िम्मेदारी रहती है।
नए सफ़र का नया इंतज़ाम कह देंगे।
हवा को धूप चराग़ों को शाम कह देंगे।
जाके ये कह दे कोई शोलों से चिंगारी से।
फूल इस बार खिले हैं बड़ी तैयारी से।
बादशाहों से भी फ़ेंके हुए सिक्के न लिए,
हमने ख़ैरात भी मांगी है तो तैयारी से।
कोई क्या सोचता रहता है मेरे बारे में,
ये ख़याल आते ही हमसाये से डर लगता है।
उस की याद आई है साँसो ज़रा आहिस्ता चलो,
धड़कनों से भी इबादत में ख़लल पड़ता है।
आँख में पानी रखो होंटों पे चिंगारी रखो।
ज़िंदा रहना है तो तरकीबें बहुत सारी रखो।
कॉलेज के सब बच्चे चुप हैं काग़ज़ की इक नाव लिए,
चारों तरफ़ दरिया की सूरत फैली हुई बेकारी है।
रोज़ पत्थर की हिमायत में ग़ज़ल लिखते हैं,
रोज़ शीशों से कोई काम निकल पड़ता है।
— अब्दुल हमीद इदरीसी,
हमीद कानपुरी