ग़ज़ल
बह रहा है सराब से पानी,
खुद के अपने हिसाब से पानी।
आँख सूखी है इन दिनों लेकिन,
गिर रहा क्यूं है ख़्वाब से पानी।
ऐसी नज़दीकियां थी कांटों से,
रिस रहा है गुलाब से पानी।
ज़िन्दगी वो सवाल है जिसके,
बह रहा हर ज़वाब से पानी।
डूब जाता ज़रूर दरिया में,
कम है मेरे हिसाब से पानी।
लोग बैठें हैं इसी ताक में ‘जय’,
कैसे उतरे जनाब से पानी।
— जयकृष्ण चांडक ‘जय’