बनफूल से बनफूल तक
हिंदी फ़िल्म ‘बनफूल’ 1971 में आई थी, इस फिल्म में एक गीत है- ‘मैं जहाँ चला जाऊं, बहार चली आए; महक जाए, राहों की धूल, मैं बनफूल….!’ यह फ़िल्म जब रिलीज हुई थी, तब बांग्ला के मशहूर कथाकार-उपन्यासकार ‘बनफूल’ जीवित थे, किन्तु इस फ़िल्म से ‘बनफूल’ जी का कोई सरोकार नहीं था ।
हाँ, नाम मिलना सिर्फ सांयोगिक परिघटना रही ! बनफूल जी ने 60 से अधिक उपन्यासों, 600 से अधिक कहानियाँ, लघुकथाएँ सहित बांग्ला साहित्य की विविध विधाओं में रचनाएँ प्रणयन किये, जो उनके जीवनकाल में प्रकाशित हुई । उनके जीवित रहते ही उनकी रचनाओं जा अनुवाद हिंदी, अंग्रेजी और कई भाषाओं में हुई ।
बिहार के कटिहार जिले के मनिहारी (तब पूर्णिया जिला) में तब 80 फीसदी बंगाली परिवार रहते थे । मनिहारी कोठी, मनिहारी हाट, घाट रोड, अस्पताल परिसर (पीएचसी), डाक बंगला हाता, टालीपाड़ा इत्यादि बंगाली संस्कृति में रची-बसी क्षेत्र है ! जहाँ जमींदार, रेलवे अफसर, शिक्षक, तो रेलवेकर्मी भी रहते आये हैं। हालाँकि अभी अधिकांश बंगाली परिवार कोलकाता, मुर्शिदाबाद, मालदा इत्यादि हेतु पलायन गए हैं !
टालीपाड़ा के पूर्वी छोड़ से पश्चिमी छोड़ में गंगा के छाड़न क्षेत्र तक आवागमन हेतु रास्ता अब भी है, पश्चिमी भाग की ओर अभी भी चबूतरा लिए घर है, यद्यपि यह मूल घर का अंश है, जहाँ जमींदार सत्तो बाबू (सत्यचरण मुखर्जी) के यहाँ माँ मृणालिनी के गर्भ से बालक फूलो बाबू (बनफूल) का जन्म हुआ।