भाषा-साहित्य

हिन्दी का सफर कहाँ तक

कभी-कभी हम भयभीत से हो जाते हैं यह सोचकर कि बदलते हुए सामाकि परिवेश
में हमारी हिन्दी कहीं पिछड़ तो नहीं रही? सम्भवतया इसमें आंग्ल भाषा का
प्रभाव भी शामिल हो, किसी हद तक हिन्दी का स्वरूप बिगाड़ने का दायित्व आम
बोल-चाल में इंग्लिश का दखल भी है जिसे हम आज हिंग्लिश कहने लगे हैं।
हिन्दी को रोमन में लिखना भी एक तरह की निराशा पैदा करता है  परन्तु वह
मात्र मोबाइल तक सीमित है, इसलिए अधिक परेशान नहीं करता। हाँ बोलने में
आंग्ल भाषा का अधिक प्रयोग किसी तरह से भी हितकर नहीं कहा जा सकता। ष्
वर्तमान परिपेक्ष में नयी पीढ़ी को जब हम अंग्रेज़ी पर आश्रित और निर्भर
देखते हैं तो मन में एक टीस-सी उठती है। यहाँ हम निरुपाय से बस देखते
रहने के लिए विवश हैं। मैकाले का षड़यन्त्र सफल हुआ। आज उसकी नीति सफल
होकर कहीं बहुत गहरे पैठ गई है और इस षड़यन्त्र का शिकार हुए हम भारतवासी
चाहकर भी अपनी भावी पीढ़ियों को हिन्दी की ओर उन्मुख नहीं कर पा रहे। लगता
है आज हिन्दी लिखना-पढ़ना लोगों से छूट रहा है। हाँ यह आवश्य है कि घर में
यदि हिन्दी बोली जाती है तो भावी पीढ़ी हिन्दी सीखेगी ही परन्तु अधिक
संभ्रांत कहे जाने वाले घरों में बात-चीत का माध्यम भी अंग्रेजी ही हो गई
है। मध्यम और निम्न मध्यम वर्ग में भी हिन्दी किसी हद तक मौखिक होकर रह
गई है।
मैं उत्तराखण्ड के जिस भाग में रहती हूँ वहाँ राष्ट्रीय सेवक संघ का
प्रभाव अधिक है, बहुत सारे घरों के बच्चे शाखा में जाते हैं। उस पर भी
बच्चे अंग्रेजी माध्यम स्कूलों के कारण हिन्दी की गिनती तक नहीं जानते।
मैं स्वयं पंजाबी भाषी क्षेत्र से हूँ। मेरा जन्म अविभाजित पंजाब में हुआ
और अभी तक हमारे घरों में पंजाबी बोली भी जाती है फिर भी हिन्दी का
प्रभुत्व बना हुआ है। इस पर भी नई पीढ़ी हिन्दी की गिनती तक नहीं जानती।
हालांकि आज की नई पीढ़ी के बच्चे हिन्दी बोलते अवश्य हैं यह किसी हद तक
हमारी पीढ़ी का दबाव भी हो सकता है क्योंकि साधारणतया घरों और गली बाजारों
में हिन्दी बोली जाती है परन्तु लिखने-पढ़ने के नाम पर नई पीढ़ी के बच्चे
वही अंग्रेज़ी ही जानते समझते हैं।
एक समय था जब अक्सर सुना जाता था कि दक्षिण भारत में हिन्दी का विरोध
बहुत मुखर है। परन्तु आज वह स्थिति नहीं है। इसका कारण सम्भवतया रोजगार
भी है। बहुत सी सरकारी-गैर सरकारी संस्थाओं में दक्षिण भारतीय लोग उत्तर
भारत में नौकरी के लिए आ रहे हैं, इसी प्रकार उत्तरी भारत के लोग दक्षिण
में नौकरी कर रहे हैं। ऐसे में राजनीतिक पैंतरे बाजी के बाद भी भाषा के
विस्तार पर अंकुश रखना कठिन हो जाता है और इसका लाभ हिन्दी को भरपूर मिल
रहा है।
दक्षिण के हर राज्य में हिन्दी प्रचार के लिए सरकारी संस्थाएँ हैं और वे
अपना काम भी कर रही हैं, फिर भी यह कोई बहुत उत्साहवर्धक स्थिति नहीं है
तो निराशाजनक भी नहीं। काम हो रहा है, भले ही गति धीमी है। कुछ न होने से
कुछ होना बेहतर हैं। हाँ यह अवश्य है कि हमें और मेहनत करनी पड़ेगी। कोई
माने या न माने हिन्दी का फलक बहुत विस्तृत है। हिन्दी धीरे-धीरे जाग रही
है।
यहाँ केवल मैकाले को कोसने से काम नहीं चलने वाला। हमारी इस दुखद स्थिति
के उत्तरदायी हमारे नेतागण भी रहे हैं, जिन्होंने सब कुछ जानते-बूझते हुए
भी हिन्दी को रोजगार से नहीं जोड़ा। स्थिति दुखद तो है परन्तु एकदम
निराशाजनक भी नहीं है, क्योंकि तनिक समझ विकसित होते ही हमारे बच्चे
हिन्दी की ओर उन्मुख होने लगते हैं। पर ये सारी परिस्थितियाँ मध्यम और
निम्न मध्यम वर्ग के लिए ही हैं। उच्च और उच्चमध्यम वर्ग तेज़ी से न केवल
आंग्ल भाषा का अनुसरण कर रहा है अपितु पाश्चात्य संस्ड्डति की ओर भी भाग
रहा है यही सबसे बड़ी समस्या है। क्योंकि यथा राजा तथा प्रजा की उक्ति के
अनुसार मध्यम और निम्न वर्ग इसी उच्च वर्ग को अपना आदर्श मानकर इनके पीछे
चलता है। ऐसे में जो लोग या संस्थाएँ हिन्दी के लिए काम कर रहे हैं
उन्हें साधुवाद और प्रोत्साहन देना आवश्यक है।
हमारे समाज की तेजी से बदलती दशा और दिशा जहाँ अंग्रेज़ी भाषा पर निर्भर
होती देखी जा रही है वहीं एक सुखद बयार के झोंके-सा सीमापार के देशों में
बढ़ता हिन्दी क्षेत्र मन को आश्वस्त भी करता है। कहीं कानों में कोई कहता
है कि ‘अभी सब कुछ समाप्त नहीं हुआ है।’ ऐसा ही एक झोंका मैंने कुछ वर्ष
पूर्व महसूस किया था जब उत्तराखण्ड के वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. रूपचन्द्र
शास्त्री ‘मयंक’ के आयोजन में हिन्दी के लगभग 70 ब्लॉगर खटीमा
;उत्तराखण्डद्ध में एकत्र हुए। उस समय मुझे पता चला कि हज़ारों की संख्या
में हिन्दी ब्लॉगर काम कर रहे हैं। इतना ही नहीं नए बच्चे जब हिन्दी
साहित्य में उतर रहे हैं तो हिन्दी साहित्य की गहराई तक जाने के लिए
उन्हें हिन्दी सीखनी भी पड़ती है।
इस दिशा में वट्सएप और फेसबुक भी सहायक हो रहे हैं। नेट को कोसने वालों
की भी कमी नहीं है पर सच तो यह है कि जिसे जो सीखना है वह सीख ही लेगा।
यानि जिसे जिस चीज़ की तलाश है वह मिल ही जाएगी। आज यदि पुस्तकें नहीं पढ़ी
जा रहीं तो उससे भी अधिक नेट पढ़ा जा रहा है। अर्थात पढ़ने की प्रवृति बढ़ी
है। ऐसे में मोबाइल के कारण आँखों पर पड़ने वाले प्रभाव के कारण पुस्तकों
का महत्व भी लोगों की समझ में आ रहा है।
भाषाओं के विस्तार और आदान-प्रदान के लिए पर्यटन भी बहुत सहयोगी होता है।
इतिहास गवाह है कि हर बड़ा लेखक पर्यटन से जुड़ा रहा है, अर्थात् घुमक्कड़
रहा ही है। भारत विविधताओं को देश है और पर्यटन की अपार संभावनाएँ यहाँ
विद्यमान हैं। बहुत से विदशी छात्र यहाँ अध्ययन के लिए भी आते हैं और
भारत में रहकर वे हिन्दी न सीखें यह हो ही नहीं सकता। इतना ही नहीं आज
हिन्दी के महत्व को समझते हुए विदेशों की सरकारें भी अपने यहाँ हिन्दी
पढ़ाने लगी हैं। हमारे प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी के गुजराती
कविता संग्रह का हिन्दी अनुवाद सुप्रसि( लेखिका श्रीमती अंजना संधीर ने
किया तो बहुत से अन्य अनुवाद दूसरी भाषाओं से हिन्दी में और हिन्दी से
अन्य भाषाओं में हो रहे हैं। इससे प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से
हिन्दी का विस्तार तो हो ही रहा है, हिन्दी साहित्य के भण्डार की श्रीवृ(
भी निरंतर हो रही है।
श्रीमती अंजना संधीर जहाँ पाँच वर्ष तक अमेरिका में हिन्दी पढ़ाती रही हैं
तो वहीं डॉ. यास्मीन सुल्ताना नक़वी जैसे विद्वान जापान में अपने वर्षों
के कार्यकाल में हिन्दी के सैकड़ों विद्यार्थियों को पारांगत करके आए हैं
और आज भी कर रहे हैं। वर्तमान में बिड़ला फाउंडेशन के निदेशक सुरेश
)तुपर्ण भी जापान में हिन्दी पढ़ा चुके हैं। कहना न होगा कि प्रत्येक देश
में आज हिन्दी पढ़ाई जा रही है। कारण चाहे जो भी हो हमें और हमारी भाषा को
सीधा लाभ मिल रहा है। हालांकि भारतीय सभ्यता की जड़ें जहाँ बहुत गहरी हैं,
वहीं हिन्दी का इतिहास बहुत पुराना नहीं है, फिर भी भारतीय सभ्यता के
दीवाने बहुत लोग हैं। उन्हें भारतीय सभ्यता से जोड़ने का काम तो हिन्दी ही
करेगी।
आपको जानकर आश्चर्य होगा कि इण्डोनेशिया, कम्बोडिया ही नहीं सम्पूर्ण
दक्षिण पूर्व एशियाई देशों में भारतीय सभ्यता के अवशेष देखे जा रहे हैं
और वहाँ के अध्ययनशील छात्र अपनी जड़ों की ओर लौटने का प्रयास कर रहे हैं।
यह सच है कि विदेशों में हिन्दी भाषा का प्रभाव बढ़ रहा है।
अकेले कम्बोडिया में ही अगणित ऐसे छात्र-छात्राएँ है जिन्हें भारत और
हिन्दी से असीम प्यार है। पर बिडंम्बना यह है कि हम तो  अपने बच्चों को
बड़ी मेहनत से अंग्रेजी सिखाने में लगे हुए हैं।
विद्वानों का कहना है कि यदि भारत की सरकारें संवेदनशील होतीं तो
सांस्ड्डतिक एकता के कारण सम्पूर्ण दक्षिण पूर्व एशिया के देश भारत के
साथ एकजुट होते। जैसे यूरोपीय देश एकजुट हैं। हमारे पूर्वज हमें यह
विरासत देकर गये हैं। पर हमारा देश तो सैक्युलर था उसने इन देशों के
प्रति उदासीनता दिखाई।
इन देशों में भारत के प्रति असीम अनुराग है। यहाँ का जनसामान्य अपनी
संस्ड्डति की जड़ें भारत में देखता है। कम्बोडिया, थाईलैंड, लाओस,
इन्डोनेशिया, वियतनाम बर्मा, फिलिपीन्स आदि भारतीयता के रंग में रंगे हुए
देश हैं। चूंकि यहाँ के लोगों को संस्ड्डत भाषा से गहन अनुराग है। इन
लोगों की भारत के सांस्ड्डतिक प्रतीकों की जानकारी  अद्भुत है। यह
विष्णु, शिव, गंगा, गरुड़ आदि सभी से गहराई से परिचित हैं पर भारत में तो
धर्मनिरपेक्षता का अर्थ संस्ड्डति विहीनता समझा गया। परिणाम सामने है।
बूंद-बूंद से ही घट भरता है। अतः यहाँ हर इकाई का योगदान महत्वपूर्ण है।
हमारे आस-पास बहुत से विद्वान हिन्दी में ब्लॉग पर काम कर रहे हैं इन
विद्वानों में डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’ शिखर पर हैं। इनका हिन्दी
ब्लॉग उच्चारण आज भी यथावत काम कर रहा है। डॉ. सि(ेश्वर का कर्मनाशा
ब्लॉग काम कर रहा है। शेफाली पाण्डे और ऐसे बहुत से नाम हैं।
मैंने अभी तक ब्लॉग पर काम नहीं किया परन्तु इसके महत्व से इनकार भी नहीं
कर सकती। मूलतः पंजाबी भाषी होते हुए मैंने पंजाबी में बहुत कम लिखा है।
हालांकि मैंने उर्दू, डोगरी महासवी बोलियों में भी लिखा है। परन्तु मेरा
अधिक काम हिन्दी में ही है। यहाँ मैं यह भी कहना चाहूँगी कि यदि हमें
हिन्दी के बारे में सोचना है और उसे विश्व-व्यापी बनाने की इच्छा है तो
अन्य भाषा भाषियों से अपेक्षा न रखकर स्वयं पहल करनी होगी। मैंने ओड़िया
सीखकर ओड़िया से हिन्दी में काव्यानुवाद किया है।  इसी तरह यदि हम भारत की
दूसरी भाषाओं में रुचि लेते हैं तो निश्चय ही हम हिन्दी को समृ( कर रहे
हैं।
हमारे लिए प्रसन्नता की बात यह भी है कि वर्तमान में सरकारी कार्यालयों
में भी हिन्दी में काम होने लगा है।  कोई चाहे तो वह सारा काम हिन्दी में
कर सकता है और यदि कोई कार्यालय इसमें लापरवाही बरतता है तो उसकी शिकायत
भी की जा सकती है।
हिन्दी को विशाल फलक दिलाने में जहाँ सिनेमा के योगदान को जाना जाता है
वहीं इस दिशा में प्रवासी भारतीय साहित्यकारों का योगदान भी कम नहीं है।
विदेशों में बसे हमारे रचनाकार अपने-अपने तरीके से हिन्दी को आगे बढ़ा रहे
हैं। वे जहाँ भी रह रहे हैं, वहाँ की भाषाओं के अतिरिक्त हिन्दी में भी
निरंतर लिख रहे हैं। इससे हिन्दी का फलक विस्तार पा रहा है।

*आशा शैली

जन्मः-ः 2 अगस्त 1942 जन्मस्थानः-ः‘अस्मान खट्टड़’ (रावलपिण्डी, अब पाकिस्तान में) मातृभाषाः-ःपंजाबी शिक्षा ः-ललित महिला विद्यालय हल्द्वानी से हाईस्कूल, प्रयाग महिलाविद्यापीठ से विद्याविनोदिनी, कहानी लेखन महाविद्यालय अम्बाला छावनी से कहानी लेखन और पत्रकारिता महाविद्यालय दिल्ली से पत्रकारिता। लेखन विधाः-ः कविता, कहानी, गीत, ग़ज़ल, शोधलेख, लघुकथा, समीक्षा, व्यंग्य, उपन्यास, नाटक एवं अनुवाद भाषाः-ः हिन्दी, उर्दू, पंजाबी, पहाड़ी (महासवी एवं डोगरी) एवं ओडि़या। प्रकाशित पुस्तकंेः-1.काँटों का नीड़ (काव्य संग्रह), (प्रथम संस्करण 1992, द्वितीय 1994, तृतीय 1997) 2.एक और द्रौपदी (काव्य संग्रह 1993) 3.सागर से पर्वत तक (ओडि़या से हिन्दी में काव्यानुवाद) प्रकाशन वर्ष (2001) 4.शजर-ए-तन्हा (उर्दू ग़ज़ल संग्रह-2001) 5.एक और द्रौपदी का बांग्ला में अनुवाद (अरु एक द्रौपदी नाम से 2001), 6.प्रभात की उर्मियाँ (लघुकथा संग्रह-2005) 7.दादी कहो कहानी (लोककथा संग्रह, प्रथम संस्करण-2006, द्वितीय संस्करण-2009), 8.गर्द के नीचे (हिमाचल के स्वतन्त्रता सेनानियों की जीवनियाँ-2007), 9.हमारी लोक कथाएं भाग एक से भाग छः तक (2007) 10.हिमाचल बोलता है (हिमाचल कला-संस्कृति पर लेख-2009) 11. सूरज चाचा (बाल कविता संकलन-2010) 12.पीर पर्वत (गीत संग्रह-2011) 13. आधुनिक नारी कहाँ जीती कहाँ हारी (नारी विषयक लेख-2011) 14. ढलते सूरज की उदासियाँ (कहानी संग्रह-2013) 15 छाया देवदार की (उपन्यास-2014) 16 द्वंद के शिखर, (कहानी संग्रह) प्रेस में प्रकाशनाधीन पुस्तकेंः-द्वंद के शिखर, (कहानी संग्रह), सुधि की सुगन्ध (कविता संग्रह), गीत संग्रह, बच्चो सुनो बाल उपन्यास व अन्य साहित्य, वे दिन (संस्मरण), ग़ज़ल संग्रह, ‘हण मैं लिक्खा करनी’ पहाड़ी कविता संग्रह, ‘पारस’ उपन्यास आदि उपलब्धियाँः-देश-विदेश की पत्रिकाओं में रचनाएँ निरंतर प्रकाशित, आकाशवाणी एवं दूरदर्शन के विभिन्न केन्द्रों से निरंतर प्रसारण, भारत के विभिन्न प्रान्तों के साहित्य मंचों से निरंतर काव्यपाठ, विचार मंचों द्वारा संचालित विचार गोष्ठियों में प्रतिभागिता। सम्मानः-पत्रकारिता द्वारा दलित गतिविधियों के लिए अ.भा. दलित साहित्य अकादमी द्वारा अम्बेदकर फैलोशिप (1992), साहित्य शिक्षा कला संस्कृति अकादमी परियाँवां (प्रतापगढ़) द्वारा साहित्यश्री’ (1994) अ.भा. दलित साहित्य अकादमी दिल्ली द्वारा अम्बेदकर ‘विशिष्ट सेवा पुरुस्कार’ (1994), शिक्षा साहित्य कला विकास समिति बहराइच द्वारा ‘काव्य श्री’, कजरा इण्टरनेशनल फि़ल्मस् गोंडा द्वारा ‘कलाश्री (1996), काव्यधारा रामपुर द्वारा ‘सारस्वत’ उपाधि (1996), अखिल भारतीय गीता मेला कानपुर द्वारा ‘काव्यश्री’ के साथ रजत पदक (1996), बाल कल्याण परिषद द्वारा सारस्वत सम्मान (1996), भाषा साहित्य सम्मेलन भोपाल द्वारा ‘साहित्यश्री’ (1996), पानीपत अकादमी द्वारा आचार्य की उपाधि (1997), साहित्य कला संस्थान आरा-बिहार से साहित्य रत्नाकर की उपाधि (1998), युवा साहित्य मण्डल गा़जि़याबाद से ‘साहित्य मनीषी’ की मानद उपाधि (1998), साहित्य शिक्षा कला संस्कृति अकादमी परियाँवां से आचार्य ‘महावीर प्रसाद द्विवेदी’ सम्मान (1998), ‘काव्य किरीट’ खजनी गोरखपुर से (1998), दुर्गावती फैलोशिप’, अ.भ. लेखक मंच शाहपुर (जयपुर) से (1999), ‘डाकण’ कहानी पर दिशा साहित्य मंच पठानकोट से (1999) विशेष सम्मान, हब्बा खातून सम्मान ग़ज़ल लेखन के लिए टैगोर मंच रायबरेली से (2000)। पंकस (पंजाब कला संस्कृति) अकादमी जालंधर द्वारा कविता सम्मान (2000) अनोखा विश्वास, इन्दौर से भाषा साहित्य रत्नाकर सम्मान (2006)। बाल साहित्य हेतु अभिव्यंजना सम्मान फर्रुखाबाद से (2006), वाग्विदाम्बरा सम्मान हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग से (2006), हिन्दी भाषा भूषण सम्मान श्रीनाथद्वारा (राज.2006), बाल साहित्यश्री खटीमा उत्तरांचल (2006), हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग द्वारा महादेवी वर्मा सम्मान, (2007) में। हिन्दी भाषा सम्मेलन पटियाला द्वारा हज़ारी प्रसाद द्विवेदी सम्मान (2008), साहित्य मण्डल श्रीनाथद्वारा (राज.) सम्पादक रत्न (2009), दादी कहो कहानी पुस्तक पर पं. हरिप्रसाद पाठक सम्मान (मथुरा), नारद सम्मान-हल्द्वानी जिला नैनीताल द्वारा (2010), स्वतंत्रता सेनानी दादा श्याम बिहारी चैबे स्मृति सम्मान (भोपाल) म.प्रदेश. तुलसी साहित्य अकादमी द्वारा (2010)। विक्रमशिला हिन्दी विद्यापीठ द्वारा भारतीय भाषा रत्न (2011), उत्तराखण्ड भाषा संस्थान द्वारा सम्मान (2011), अखिल भारतीय पत्रकारिता संगठन पानीपत द्वारा पं. युगलकिशोर शुकुल पत्रकारिता सम्मान (2012), (हल्द्वानी) स्व. भगवती देवी प्रजापति हास्य-रत्न सम्मान (2012) साहित्य सरिता, म. प्र. पत्रलेखक मंच बेतूल। भारतेंदु साहित्य सम्मान (2013) कोटा, साहित्य श्री सम्मान(2013), हल्दीघाटी, ‘काव्यगौरव’ सम्मान (2014) बरेली, आषा षैली के काव्य का अनुषीलन (लघुषोध द्वारा कु. मंजू षर्मा, षोध निदेषिका डाॅ. प्रभा पंत, मोतीराम-बाबूराम राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय हल्द्वानी )-2014, सम्पादक रत्न सम्मान उत्तराखण्ड बाल कल्याण साहित्य संस्थान, खटीमा-(2014), हिमाक्षरा सृजन अलंकरण, धर्मषाला, हिमाचल प्रदेष में, हिमाक्षरा राश्ट्रीय साहित्य परिशद द्वारा (2014), सुमन चतुर्वेदी सम्मान, हिन्दी साहित्य सम्मेलन भोपाल द्वारा (2014), हिमाचल गौरव सम्मान, बेटियाँ बचाओ एवं बुषहर हलचल (रामपुर बुषहर -हिमाचल प्रदेष) द्वारा (2015)। उत्तराखण्ड सरकार द्वारा प्रदत्त ‘तीलू रौतेली’ पुरस्कार 2016। सम्प्रतिः-आरती प्रकाशन की गतिविधियों में संलग्न, प्रधान सम्पादक, हिन्दी पत्रिका शैल सूत्र (त्रै.) वर्तमान पताः-कार रोड, बिंदुखत्ता, पो. आॅ. लालकुआँ, जिला नैनीताल (उत्तराखण्ड) 262402 मो.9456717150, 07055336168 [email protected]