दोहा गजल
बरगद की छाया घनी,तनकर खड़ा खजूर।
वट झुकना ही जानता, नहीं अहं में चूर।।
पथिक सराहे शजर को,छाया दे जो खूब,
धूप, ताप हरता सभी, करे थकावट दूर।
रिश्ते सारे पेड़ हैं , मिलते जीवन – राह,
कोई छायादार है , कहीं खार भरपूर।
कहीं बेर की झाड़ियाँ, उलझातीं पथ रोक,
लहू निकालें देह में, बनतीं हैवां क्रूर।
पत्थर फेंका पेड़ पर,फिर भी देता आम,
नहीं भेद करता कभी,दानव हो या हूर।
अपने भद्र स्वभाव को,साधु न तजते मीत,
दूध पिलाओ साँप को,फिर भी विष भरपूर।
मानव की ही देह में, दानव करता वास,
‘शुभम’ गरेबाँ झाँक ले,दिख जाएगा नूर।।
— डॉ. भगवत स्वरूप ‘शुभम’