खुल जाए सिम-सिम
जैसे-जैसे बचपन बीतता गया, मर्ज बढ़ता गया, जिंदगी की हकीकतों के अनेक जादुई दरवाजे ‘सिम-सिम’ कर खुलने लगे…. तब मालूम हुआ कि कोई थानेदार, तहसीलदार, जागीरदार, तालुकदार या मालदार यूं ही नहीं बन जाता ! उसके पीछे काफी मेहनत-मशक्कत, पढ़ाई-लिखाई और घिसाई होती है !
घर से रोज नसीहतें मिलती कि कोई भी ‘दार’ यानी रसूखदार, दमदार, मालदार, इज्जतदार, थानेदार, जागीरदार, तहसीलदार इत्यादि बनना हो तो सबसे पहले ईमानदार बनो !
रास्ता जरुर कुछ अड़चनों भरा और घुमावदार होगा, पर ‘मलाईदार’ जॉब पाना है तो एक तरह से इसे ‘मस्ट’ समझो, अन्यथा जमादार, चौकीदार या झाड़ूदार बनना तो तय है ही! घरवाले अक्सर एक लाइन का एक मुहावरा व ताना सुनाते व मारते-
“पढ़ोगे-लिखोगे बनोगे नवाब,
खेलोगे-कूदोगे बनोगे खराब !”
आज की तारीख में सब उल्टा-पुल्टा हो गया है….
खेलने-कूदने वाले ‘भारत-रत्न‘ और पढ़े-लिखे लोग भाँड़ में….
श्री अभिषेक शर्मा और श्री राजेश मंगल जी के प्रति हृदयश: आभार !