पूछती धरा कभी गगन से।
पूछती धरा कभी गगन से ….
होगा अपना भी मिलन फिर तुम उदास क्यों हो?
देख कर तुम्हारी व्यथा मन में उठती कसक है वो।
तुम ऊंचाइयों पर हो खुद पर इतराते क्यों नहीं ??
तुम्हारी शीतलता पे जाने क्यों कायल होता हूं कहीं।
कहां तुम कहां मैं ये मिलन तो लगता है नामुमकिन??
तुम्हारे वादे पे मैं यकीं रखूंगा बीत जाएं चाहे बरसों दिन।
मैं धरा जब समा लेती हूं सब कुछ तुम क्या देखते हो तब??
तुम्हारी उदारता और कर्त्तव्य पे होता है गर्व मुझे भी सच।
कितने बरस बीत गए मैं और तुम वहीं रहे जाने क्यों??
कुछ अपना भी मकसद होगा जीवन में सबका होता है ज्यों।
कामनी गुप्ता***
जम्मू !