मुखर लेखनी
हां! मुखर हो गई है,,,
मेरी लेखनी
लिखना नहीं चाहती… यह कविता!
कैसे लिखे सुंदरता पर यह
जब रोज मरे…
“दरिंदगी” से सुता!!
मुर्दों में तलाशें जो मुद्दे
ऐसे “गिद्ध” चहुं ओर
इसे दिखते हैं!
देखके वादी प्रतिवादी का जाति-धर्म
शिकार अपना,,,
जो चुनते हैं!
सत्ता – सियासत और
टीआरपी वाले
शतरंज की बिसात…
बिछाते हैं!
निरीह, कमज़ोर और पीड़ित,
जाल में इनके फंस जाते हैं !
चिता की लपटों पे
रोटियां सेंकने का,
तुष्टिकरण और जातिवाद का,
चलन जब खत्म हो जाएगा!
चलने लगेगी यह मुखर लेखनी
पुनः कविता का जन्म हो जाएगा!!
— अंजु गुप्ता