नानाजी और जेपी
11 अक्टूबर को ‘जेपी’ के साथ-साथ एक और भारतरत्न की जयंती थी : ‘नानाजी देशमुख’ को हम विस्मृत कर गए क्या ? जयप्रकाश नारायण, नानाजी देशमुख और राममनोहर लोहिया के बीच समानता तो है, एतदर्थ इन तीनों को निःसंकोच तुलना-त्रयी कहा जा सकता है । तीनों समाजवादी हैं, किन्तु राष्ट्रवादी हैं । तीनों को हिंदुत्व संस्कृति भाए हैं, किन्तु धर्मनिरपेक्षता को वे ‘मिस’ नहीं कर सकते थे । तीनों को सत्ता से मोह नहीं था, चाहते तो केंद्रीय सत्ता में अहम किरदार निभा सकते थे ! परंतु जेपी प्रधानमंत्री नहीं बने, नानाजी का नाम मोरारजी-मंत्रिमंडल के लिए शामिल होने पर भी वे उधर नहीं गए । भारत सरकार ने जेपी और नानाजी देशमुख को ही ‘भारत रत्न’ से अलंकृत किये हैं । खैर, यही तो राजनीतिक मीमांसा और पिपासा जो है! 11 अक्टूबर यानी जयप्रकाश और नानाजी की जयंती है, जेपी यानी जयप्रकाश ने छात्र आंदोलन में शरीक होकर गुजरात से लेकर जहाँ बिहार में अब्दुल गफ़ूर की सरकार को उखाड़ फेंकने को लेकर जैसे सिर पर क़फ़न ही बांध लिये । विख्यात फ़ोटोग्राफ़र रघु राय के चित्रों में दर्ज़ जिस लाठी की मार से जेपी गंभीर रूप से घायल हुए, उनके लिए क़फ़न ही साबित हुए और यही तो ‘सम्पूर्ण क्रांति’ की आग़ाज़ साबित हुई, जो कि प्रियदर्शिनी इंदु गांधी की चूलें हिला कर रख दी । इसी बीच लोहिया भी इंदु से हिसाब मांगने लगे । बकौल लोहिया– ‘ज़िंदा कौमें पाँच बरस इंतज़ार नहीं करती ।’ …. तो महाराष्ट्रीयन नानाजी ने भारत भ्रमण कर तथा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बतौर प्रवक्ता बन समाजवादी राष्ट्रवाद का प्रचार-प्रसार कर देशभक्ति की लौ जगा दी । नानाजी की 102 वीं जयंती वर्त्तमान भारत सरकार के माने तो अहम है, जिनमें सिद्धांत और प्रतिबद्धता अनोखेपन लिए है । राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने जेपी को लेकर कई कविताएँ लिखा है, किन्तु स्वयं जेपी ने चंडीगढ़ जेल में 9 अगस्त 1975 को जो कविता खुद पर लिखा था, वह प्रस्तुत कविता वर्त्तमान बोध में जेपी, नानाजी, लोहिया यानी तीनों के प्रसंगश: सटीक अवधारित होती है, द्रष्टव्य :-
“जीवन विफलताओं से भरा है,
सफलताएँ जब कभी आईं निकट,
दूर ठेला है उन्हें निज मार्ग से ।
तो क्या वह मूर्खता थी ?
नहीं सफलता और विफलता की
परिभाषाएँ भिन्न हैं मेरी !
इतिहास से पूछो कि वर्षों पूर्व
बन नहीं सकता प्रधानमन्त्री क्या ?
किन्तु मुझ क्रान्ति-शोधक के लिए
कुछ अन्य ही पथ मान्य थे, उद्दिष्ट थे,
पथ त्याग के, सेवा के, निर्माण के,
पथ-संघर्ष के, सम्पूर्ण-क्रान्ति के ।
जग जिन्हें कहता विफलता
थीं शोध की वे मंज़िलें ।
मंजिलें वे अनगिनत हैं,
गन्तव्य भी अति दूर है,
रुकना नहीं मुझको कहीं
अवरुद्ध जितना मार्ग हो ।
निज कामना कुछ है नहीं
सब है समर्पित ईश को ।
तो, विफलताओं पर तुष्ट हूँ अपनी,
और यह विफल जीवन
शत–शत धन्य होगा,
यदि समानधर्मा प्रिय तरुणों का
कण्टकाकीर्ण मार्ग
यह कुछ सुगम बन जावे !”