अध्यात्म से ही निर्वांण की प्राप्ति
अध्यात्म बड़ा सहज है। फिर भी लोग मन में कई भ्रांतियां पाल लेते हैं कि कहीं आध्यात्मिक होने पर घर छोड़कर संन्यास लेना पड़ जाए, कहीं बैरागी न हो जाऊं, कहीं गृहस्थ धर्म न छोड़ दूं। अध्यात्म तो हमें जीवन जीना सिखाता है। जैसे कोई भी मशीन खरीदने पर उसके साथ एक मैन्युअल बुक आती है, ऐसे ही तन-मन को चलाने के लिए मैन्युअल बुक गीता आदि आध्यात्मिक शास्त्र और गुरु होते हैं जो हमें शरीर, इंद्रियों, मन, बुद्धि अहंकार का प्रयोग करना सिखाते हैं। घर-गृहस्थी में तालमेल बिठाना सिखाते हैं, समाज में आदर्श के रूप में रहना सिखाते हैं, मन को सुलझाना सिखाते हैं। अत: धर्म कोई भी हो, लेकिन सभी को आध्यात्मिक अवश्य होना चाहिए।
अब प्रश्र उठता है कि अध्यात्म का लक्ष्य क्या है? यह समझो जैसे आप कभी पहाडिय़ों पर घूमने जाते हैं। पहाडिय़ों पर मंजिल भी वैसी ही होती है, जैसा रास्ता। फिर आप रास्ते के साइड सीन का आनंद लेते हैं, हर सीन को देखकर प्रसन्न होते हैं, उसका मजा लेते हैं। फिर अंत में जहां पहुंचते हैं, वहां भी वही दृश्य पाते हैं। अत: रास्ते का ही मजा है। लॉन्ग ड्राइव में आप रास्ते का ही आनंद लेते हैं। अध्यात्म की यात्रा भी ऐसी ही होती है जिसमें रास्ते का ही सुख है।
अध्यात्म कहता है कि बीतते हुए हर पल का आनंद लो, उस पल में रहो, हर पल को खुशी के साथ जियो। हर परिस्थिति, सुख-दुख, मान-सम्मान, लाभ-हानि से गुजरते हुए अपने में मस्त रहो। द्वंद्वों में सम्भाव में रहो क्योंकि मुक्ति मरने के बाद नहीं, जीते जी की अवस्था है। जब हम अपने स्वरूप के साथ जुड़कर हर पल को जीते हैं, तब वह जीते जी मुक्त भाव में ही बना रहता है। अध्यात्म कोई मंजिल नहीं, बल्कि यात्रा है। इसमें जीवन भर चलते रहना है। यह यात्रा हमें वर्तमान में रहना और अभी में आनंद लेना सिखाती है।
यदि ‘अभी में’ रहकर उस आनंद भाव में नहीं आए तो कभी हम आनंद में नहीं आ पाएंगे और जब भी आएंगे, उस समय भी अभी ही होगा। वैसे हम पूरा जीवन अभी-अभी की शृंखला में जीते हैं। जन्म से लेकर मृत्यु तक अभी-अभी-अभी में ही जीते हैं। फिर भी मन भूतकाल या भविष्य में ही बना रहता है और भूतकाल का दुख या भविष्य का डर या लालच में ही मन घूमता रहता है लेकिन जब हम अभी में आते हैं, उसी समय से हमारे जीवन में अध्यात्म का प्रारम्भ होता है और फिर हम इस अभी-अभी की कड़ी को पकड़ कर रखते हैं। इसलिए मुक्ति अभी में है, भविष्य में नहीं। अत: यदि हम जीवन भर अभी को पकड़ कर रखें फिर हम जहां हैं जैसे हैं, वहीं आध्यात्मिक हो सकते हैं।
— प्रफुल्ल सिंह “बेचैन कलम”