विचार विमर्श- 1
आज से हम एक नई श्रंखला शुरु कर रहे हैं. इस श्रंखला में कुछ विचार होंगे और उन पर हमारा विमर्श होगा. आप भी कामेंट्स में अपनी राय लिख सकते हैं-
1.आज के युग में कोई सच्चाई का साथ देता है?
सच्चाई का साथ देने के लिए किसी युग विशेष की आवश्यकता नहीं है. आज भी लोग सच्चाई का साथ देते देखे जा सकते हैं. सच्चाई का साथ देने के लिए मन का सच्चा होना अत्यंत आवश्यक है. खुद पर और खुदा पर विश्वास होना भी अत्यंत आवश्यक है. अभी कुछ दिन पहले की बात है. मुझे तीन केलों की आवश्यकता थी, जिसके 15 रुपये बनते थे. मैंने 1-2 रुपये के सिक्कों में भुगतान किया और गलती से 16 रुपये दे दिये. सब्जी वाले ने आवाज देकर 1 रुपया वापिस दिया. ऐसे व्यक्ति पहले भी मिलते थे, आज भी मिल जाते हैं. भले ही वे रातों-रात धन्ना सेठ न बन पाएं, पर मन में बस जाते हैं.
2.क्या आप सिर्फ जानकारी को ही शिक्षा समझते हैं?
इस विषय के संदर्भ में सबसे पहले हमें यह देखना होगा, कि हम शिक्षा मानते किसे हैं? शिक्षा का शाब्दिक अर्थ है- सीखना या सिखाना. शिक्षा का व्यावहारिक अर्थ है- अक्षर-ज्ञान या स्कूली शिक्षा. चमड़े की आंख के अतिरिक्त शिक्षा को दूसरी आंख भी कहा गया है.
अब बात आती है जानकारी की. जानकारी यानी जानना. जानकारी के अनेक स्त्रोत, साधन या माध्यम हैं, जिनमें से एक स्त्रोत है शिक्षा. शिक्षा से हम जानकारी आसानी से प्राप्त कर सकते हैं, पर सिर्फ जानकारी को ही शिक्षा नहीं कहा-समझा जा सकता.
यहां यह भी ज्ञातव्य है कि जानकारी प्राप्त करने के बाद उसकी परख करना भी आवश्यक है, कि हमारी जानकारी सही है या नहीं! जानकारी हमारे लिए उपयोगी या लाभकारी है या नहीं! जानकारी की इस परख के लिए शिक्षा अत्यंत आवश्यक है. अतः शिक्षा जानकारी का एक स्त्रोत-साधन भले ही हो, पर मात्र जानकारी को ही शिक्षा नहीं कहा-समझा जा सकता.
3.क्या स्वास्थ्य से बड़ा कोई सुख जीवन में होता है?
आज की चर्चा में दो शब्द प्रमुख हैं- सुख और स्वास्थ्य. सबसे पहले यह जिज्ञासा होती है, कि सुख कहते किसे हैं? ‘सुख’ शब्द सुनते ही मन एक मखमली आनंद से भर उठता है. इस जगत् में सभी सुख चाहते हैं. हममें से हर एक सुख का अभिलाषी है. सुख एक अनुभूति है. आनंद, अनुकूलता, प्रसन्नता, शांति इत्यादि की अनुभूति होने को सुख कहा जाता हैं. यों तो सुख की अनुभूति मन से जुड़ी हुई हैं और बाह्य साधनों से भी सुख की अनुभूति हो सकती हैं और अन्दर के आत्मानुभव से बिना किसी बाह्य साधन एवं अनुकूल वातावरण के बिना भी सुख की अनुभूति हो सकती है, फिर भी सुख की पूर्ण अनुभूति के लिए शरीर का स्वस्थ होना अत्यंत आवश्यक है. आत्म संतुष्टि मिल जाने पर भी कोई व्यक्ति सुख-प्राप्ति कर लेता है.
दूसरा शब्द है- स्वास्थ्य. स्वास्थ्य यानी तन से तंदुरुस्त रहना. स्वस्थ रहना सबसे बड़ा सुख है. कहावत भी है- ‘पहला सुख निरोगी काया’. कोई आदमी तभी अपने जीवन का पूरा आनन्द उठा सकता है, जब वह शारीरिक और मानसिक रूप से स्वस्थ रहे. स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मस्तिष्क निवास करता है. इसलिए मानसिक स्वास्थ्य के लिए भी शारीरिक स्वास्थ्य अनिवार्य है. कहावत है- ‘एक तंदुरुस्ती हजार नियामत’ यानी स्वस्थ शरीर से हजार प्रकार के लाभ हैं. ऋषियों ने भी कहा है ‘शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्’ अर्थात्यह शरीर ही धर्म का श्रेष्ठ साधन है.’
निष्कर्ष यही निकलता है, कि हमारा अच्छा स्वास्थ्य हमारी वास्तविक पूंजी है. अच्छे स्वास्थ्य से ही हम सच्चा सुख प्राप्त कर सकते हैं. अच्छा स्वास्थ्य ही जीवन का सबसे बड़ा सुख है.
4.जिस कार्य में आत्मा का पतन हो क्या वह पाप है?
श्रीमद्भग्वद्गीता में कहा गया है-
”न जायते म्रियते वा कदाचि- न्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः ।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो- न हन्यते हन्यमाने शरीरे ॥”
इस संदर्भ में देखा जाए, तो आत्मा निर्लिप्त है. उसको कोई लेप-आक्षेप नहीं लगता. ऐसा भी माना जाता है, कि पाप की सजा आत्मा को मिलती है शरीर को नहीं. यह शरीर जिसे हम अपना समझते हैं वह अपना नहीं होता. यह केवल एक जरिया है जिसके द्वारा आत्मा का इस संसार में वास होता है या फिर यह कह सकते हैं, शरीर आत्मा का घर है और कोई भी घर हमेशा के लिए अपना तो होता नहीं है.
काम, क्रोध, लोभ, मोह व अहंकार मनुष्य के प्रबल शत्रु हैं जो मनुष्य का जीवन नष्ट कर देते हैं. इन्हें विकार भी कह सकते हैं और पाप भी. विकार ही तो शरीर या आत्मा को विकृत करते हैं. किसी एक विकार के आने से बाकी विकार स्वतः ही आ जाते हैं.
व्यवहार में देखा जाए, तो किसी भी पाप कर्म से शरीर भी प्रभावित होता है, आत्मा भी. उदाहरण के लिए नशे की आदत को लिया जाए. नशा करने वाले का शरीर तो दुष्प्रभावित होता ही है, नशा छोड़ना चाहते हुए भी लिप्सा-लालसा के कारण वह नशा छोड़ नहीं पाता, ऐसे में उसे लगता है कि उसकी आत्मा उसे कचोट रही है. आत्मा की यही कचोट आत्मा का पतन भी है और पाप भी. परिणाम सोचे-समझे बिना किया जाने वाल दुष्कर्म पाप कहलाता है और पाप आत्मा को कचोटता ही है. इसी को आत्मा का पतन कहा जाता है. निष्कर्ष यही निकलता है, कि जिस कार्य में आत्मा का पतन हो, वह पाप है.
5.सामूहिक दुष्कर्मियों को तुरंत सजा देने के लिए क्या-क्या कानून में संशोधन होना चाहिए?
सबसे पहले तो प्रशासन-व्यवस्था इतनी सुदृढ़ और चुस्त-दुरुस्त होनी चाहिए कि दुष्कर्म या सामूहिक दुष्कर्म होने ही न पाएं. इसके बावजूद ऐसा हो जाता है, तो यथासंभव सामूहिक दुष्कर्मियों को तुरंत गिरफ्तार किया जाना चाहिए और त्वरित न्याय की व्यवस्था करते हुए उनको सरेआम कड़ा दंड देना चाहिए. जब तक ऐसा नहीं होगा, सामूहिक दुष्कर्मियों का साहस बढ़ता ही जाएगा. विलंब से किया हुआ न्याय भी अन्याय के समान ही होता है. इसके अतिरिक्त पीड़ित का विसरा सुरक्षित रखा जाना चाहिए, आनन-फानन उसका अंत्येष्टि संस्कार नहीं करना चाहिए, इससे सभी सुबूत मिट जाते हैं और सामूहिक दुष्कर्मियों का गुनाह साबित होने में कठिनाई आती है. यदि सामूहिक दुष्कर्मियों में से कोई दुष्कर्मी नाबालिग हो तो, उसे बच्चा समझकर बख्शा नहीं जाना चाहिए. वह तो और अधिक गुनहगार माना जाना चाहिए. दुष्कर्मी हों या सामूहिक दुष्कर्मी, देश-समाज-मानवता-न्याय सबके लिए दुर्दांत कलंक हैं, उनको तुरंत सरेआम कड़ा दंड देना वांछनीय है.
6.क्या जाति व धर्म के बिना राजनीति संभव नहीं है?
यह विडम्बना ही है, कि यह प्रश्न उठाना पड़ रहा है, कि ”क्या जाति व धर्म के बिना राजनीति संभव नहीं है?” संभव क्यों नहीं है, सब कुछ संभव है. असंभव शब्द तो शब्दकोष में होना ही नहीं चाहिए. फ्रांसीसी क्रांति के दौर में बुलंदी छूने वाले सैन्य कमांडर और राजनेता नेपोलियन बोर्नापार्ट का निधन साल 1821 में 5 मई को हुआ था. इस राजनेता का मानना था- ”मेरे शब्दकोष में असंभव शब्द नहीं है.” नेपोलियन बोर्नापार्ट के ही शब्दकोष में क्यों महात्मा गांधी के शब्दकोष में भी असंभव शब्द नहीं था. उन्होंने न तो एक व्यक्ति के रूप में और न ही एक राजनेता के रूप में असंभव शब्द को और न ही धर्म और जाति को आड़े आने दिया. जिन लोगों के लिए समाज में ढोल बजाकर चलने का प्रावधान था ताकि उनकी छाया भी किसी सवर्ण पर न पड़े, गांधीजी ने उनको ‘हरिजन’ अर्थात हरि यानी प्रभु का जन कहा और जीवन भर बिना भेदभाव के सबकी सेवा में लगे रहे. वे राष्ट्रपिता कहलाए.
भारत के पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री का जन्म शारदा प्रसाद श्रीवास्तव के घर हुआ था, फिर भी उन्हें काशी विघापीठ से शास्त्री की उपाधि मिलने पर वे जीवन भर के लिये जाति सूचक शब्द श्रीवास्तव से मुक्त रहे. उन्होंने भी जाति व धर्म के से ऊपर उठकर राजनीति करके दिखाई. विसंगति यह भी है, कि आजकल चुनाव के समय जाति व धर्म के आधार पर राजनीति की जाती है और बाद में उनको भुला दिया जाता है. सामूहिक दुष्कर्म जैसे जघन्य अपराधों में जाति व धर्म के आधार पर राजनीति का बोलबाला हो जाता है, जो खुद में एक अपराध है. सामूहिक दुष्कर्म जैसे जघन्य अपराधों का विरोध होना चाहिए और खूब होना चाहिए, लेकिन किसी जाति-धर्म विशेष के नाम पर नहीं. अगर हम चाहें तो जाति व धर्म के बिना राजनीति अवश्य संभव है, इसमें कोई संशय नहीं.
7.हाथरस के डी एम की कार्यप्रणाली पर सवाल क्यों उठ रहे हैं?
हाथरस के डी एम की कार्यप्रणाली पर सवाल उठने स्वाभाविक हैं. डी एम हमेशा जिले के आपराधिक प्रशासन का प्रमुख होता है और इसीलिए वह थानेदार और दूसरे पुलिस कर्मियों को आदेश भी देता है और उनकी मीटिंग भी लेता है. उसके बाद अगर कार्यप्रणाली पर सवाल उठते हैं, तो निश्चय ही उसका जिम्मेदार डी एम को ही ठहराया जाना चाहिए. हाथरस रेप कांड में कार्रवाई करते हुए उत्तर प्रदेश सरकार ने घटना थाना क्षेत्र के पुलिस अधिकारियों और एसपी को सस्पेंड कर दिया था. इस पर आपत्ति जताना नितांत तर्कसंगत है. अगर किसी को सस्पेंड किया जाना है, तो डी एम को ही किया जाना चाहिए.
कृपया अपने संक्षिप्त व संतुलित विचार संयमित भाषा में प्रकट करें.
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